Tuesday, September 15, 2015

नमन हिन्दी। नमन!


एक मोटे अनुमान के अनुसार देष में 42 प्रतिषत आबादी हिन्दी भाषी है। देष में सर्वाधिक अखबार हिन्दी के निकलते हैं। सर्वाधिक फिल्में हिन्दी की बनती है और विज्ञापन और मीडिया में बरती जाने वाली भाषा का मूल आधार भी हिन्दी ही है। इस सबके बावजूद जब हिन्दी भाषा के संरक्षण और विकास पर चिंता जाहिर की जाती है तो लगता है, कुछ है-जिससे हिन्दी के गौरव को ठेस पहुंच रही है। यह कुछ क्या है? जब भी इस पर विचार करता हूं, जेहन में बहुत सी यादें कौंध-कौंध जाती है।
देशभर में कला-संस्कृति, पर्यटन और मीडिया विषयक व्याख्यान के लिए जाना होता रहता है। हिन्दी में लिखता हूं, हिन्दी में सोचता हूं सो स्वाभाविक ही है कि जहां कहीं जाता हूं, हिन्दी में ही संवाद करता हूूं परन्तु अपने गौरव के परिवेष से बाहर झांकता हूं तो ताम-झाम और अनर्गल चकाचैंध में अपने को दोयम दर्जे में घिरा भी बहुतेरी बार पाता हूं। शायद इसलिए कि हमने खुद ही संपन्नता का पूरा का पूरा बोध अंग्रेजी भाषा को अपने तई सौंप दिया है। तमाम बड़े आयोजनों, संगोष्ठियों का मूल भले भारतीय संगीत, नृत्य, नाट्य हो परन्तु वहां संवाद की भाषा जानबूझकर अंग्रेजी चुनी जाती है। बड़ा कारण यह भी है कि जो कुछ बड़े स्तर पर क्रियान्वित होता है-उसका आधार अंग्रेजी भाषा ही है। 
अभी बहुत समय नहीं हुआ, उदयपुर में पर्यटन पर एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में एक सत्र की अध्यक्षता का निमंत्रण मिला था। सुखद लगा। देषभर से पर्यटन विषेषज्ञ एक मंच पर उपस्थित थे। आयोजन से कुछ समय पहले तमाम लोगों से वार्तालाप हिन्दी में ही हुआ पर जब कार्यक्रम की शुरूआत हुई तो संयोजक ने अंग्रेजी का दामन थाम लिया। यह तो अच्छा था कि आयोजन के मुख्य अतिथि संसदीय सलाहकार बोर्ड के सदस्य श्री रघुनंदन शर्मा थे-जिन्होंने अपने उद्बोधन हिन्दी में प्रारंभ किया और बाकायदा उनने हिन्दी में अपने को बखूबी संप्रेषित भी किया। चूंकि ऊपर से हिन्दी मे संवाद की पहल हुई सो बाद में तमाम मंच हिन्दी की लय में अपनापे की तलाष का आकाष बनता चला गया। बल्कि तमाम वह जो अंग्रेजी में बोल रहे थे उन्होंने न केवल हिन्दी में बोला बल्कि यह बताने में भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ी कि उनकी हिन्दी बेहतरीन है। पर विडम्बना यह भी है कि यह वह लोग थे जो आमतौर पर हिन्दीभाषी हैं और सामान्य संवाद की उनकी भाषा हिन्दी ही है परन्तु सभा-सम्मेलन में अंग्रेजी में अपने को संप्रेषित कर ही वह अपने को धन्य समझते रहे हैं।
बहरहाल, अंग्रेजी में संवाद बुरा नहीं है। भाषा कोई भी हो, कहां बुरी होती है परन्तु जब उसके जरिए आप अपने को स्थापित करने के प्रयास में हो तो जरूर स्थिति सोचनीय हो सकती है। इस समय यही हो रहा है। देषभर में उच्च स्तर पर अंग्रेजी का बोलबाला है। व्यक्तिगत मैं यह भी पाता हूूं कि इस बोलबाले में ही हिन्दी की बेचारगी की बात की जाती है। पर यह पूरा सच नहीं हे। यह सच है, अंग्रेजी में भाषिक व्यंजना तो बहुतेरे बेहतरीन करते हैं परन्तु वहां विचार अमूमलन गौण होता है। अंग्रेजी के बोलबाले की एक और भी वजह है, तमाम जो कुछ आपका नही ंहै, वह सूचना और संचार प्रौद्योगिकी से आपका हो गया है। गूगल और दूसरे सर्च इंजन पर जानेभर की जरूरत है, अंग्रेजी में सब कुछ तैयार मिल जाएगा और फिर उसके लिए अलग से कुछ तैयारी की जरूरत नहीं है। पर्यटन संगोष्ठी के एक सत्र की अध्यक्षता जब कर रहा था तो इसे षिद्दत से महसूस किया। पर्यटन षिक्षा से जुड़े विद्वतजन और शोधार्थी जो प्रस्तुत कर रहे थे वह आकर्षक, ताम-झाम भरा था परन्तु वहां पर नया कुछ  नहीं था। केरल के पर्यटन विकास को आदर्ष रूप में प्रस्तुत करने की घिसी-पीटी सोच से जुड़ा एक शोध पत्र था, एक शोध पत्र होटल उद्योग में कार्मिकों के प्रबंधन से जुड़ा था, एक में पर्यटन और अर्थव्यवस्था से जुड़े आंकड़ों का मायाजाल था और ऐसे ही कुछ और भी थे जिनमें शोध निष्कर्ष कुछ निकाला नहीं जा सकता था। स्पष्ट था, जो कुछ प्रस्तुत किया गया वह इन्टरनेट की मदद से तैयार कर ‘ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया’ सरीखा ही था। अंग्रेजी इसीलिए धड़ल्ले से चल रही है। पर अब तो यूनिकोड में भी आप सर्च इंजनों पर कुछ तलाषेंगे तो बहुत कुछ पा जाएंगे पर इसका अभ्यास अभी बहुत से स्तरों पर है नहीं।
बहरहाल, लौटता हूं फिर से संगोष्ठह की चर्चा पर। वहां जो अनुभूत किया वह  किसी एक संगोष्ठी का सच नहीं है। तमाम बड़ी संगोष्ठियों का आज का सच यही है। वहां जो कुछ प्रस्तुत होता है, अंग्रेजी में होता है। यहां तक कि जो हिन्दी माध्यम से पढ़कर आए हैं-वह अपने आपको अंग्रेजी में प्रस्तुत कर गौरवान्वित करते हैं। बल्कि अंग्रेजी में अपने को संप्रेषित कर वह अपने को लगातार धन्य करते हैं। यह बात इसलिए कि मेरे एक मित्र है जो राजस्थान से ही है परन्तु इन दिनों भारत सरकार के एक बडे संस्थान में महत्वपूर्ण पद पर जुड़े हैं। एक संगोष्ठी में उनके साथ था। संयोग देखिए, मैंने अपने को हिन्दी में संप्रेषित किया- उपस्थितजनों को बहुत अच्छा लगा। और सबके सब जो अंग्रेजी बोल रहे थे, हिन्दी में लौट आए। बल्कि कहूं उन्हें सहज लगा, अपनी भाषा में बतियाना। जब सारा माहौल हिन्दी का हो गया, उन्होंने भी बोलना प्रारंभ किया। कहा, ‘मैं प्रयास करता हूं, हिन्दी में बोलने का।’ घोर अचरज हुआ। जो हिन्दी भाषी है, घर की भाषा जिनकी हिन्दी है, वह यह कहे कि प्रयास करता हूं हिन्दी में बोलने का। ऐसा ही हो रहा है। इसलिए कि हिन्दी भाषी ऐसे अंग्रेजीदां लेागों ने जो कुछ पाया, उसका बड़ा आधार वह अंग्रेजी भाषा शायद रही जिसमें मौलिक सोच और चिंतन नहीं होते हुए भी बहुत कुछ पाया जा सकता है।
देषभर में घुम्मकड़ी करते, विषेष रूप से कला-संस्कृति और पर्यटन पर व्याख्यान के लिए जाना निंरतर होता है। स्वीकार करता हूं, पहले-पहले अपने को संप्रेषित करने के लिए अंग्रेजी मे ही ंतैयार किया। बहुत से स्थानों पर बोलकर धन्य भी हुआ पर धीरे-धीरे लगा, अपनी भाषा में जितना सहज रहता हूं, मौलिक चिंतन को व्यक्त कर पाता हूं उतना अंग्रेजी में नहीं सो तय कर लिया-अपने आपको सदा हिन्दी में ही व्यंजित करूंगा। यही करता रहा हूं और सदा अपने को गौरवान्वित भी महसूस किया। इसलिए कि जब कभी हिन्दी में प्रारंभ किया, तमाम माहौल अपने आप ही हिन्दी का होता चला गया। 
याद है, दिल्ली से ललित कला अकादमी की ओर से ‘न्यू मीडिया आर्ट’ पर चंडीगढ में आयोजित राष्ट्रीय कला सप्ताह में भाग लेने और संवाद करने का निमंत्रण मिला था। संशय मंे पड़ गया। संशय इस बात को लेकर था कि संवाद हिन्दी में करना है या अंग्रेजी में। चंडीगढ़ ललित कला अकादमी की मेजबानी में आयोजित समारोह के निमंत्रण पत्र से लेकर तमाम संवाद, औपचारिकताएं अंग्रेजी में ही हो रही थीं। यूं भी केन्द्रित विषय में हिन्दी कहीं दिखाई नहीं दे रही थी। सो मेरा संशय भी वाजिब ही कहूंगा। पहुंचने पर चंडीगढ़ ललित कला अकादमी के अध्यक्ष और देश के जाने माने छायाकार दिवान मन्ना ने गर्मजोशी से अंग्रेजी में ही स्वागत किया। होटल में कुछ और भी प्रतिभागी थे, सबके सब अंग्रेजीदां। हिन्दी वहां भी कहीं नजर नही आ रही थी। दूसरे दिन एक कला की एक प्रतिष्ठित पत्रिका के तब के संपादक राहुल भट्टाचार्य ने अंग्रेजी में संयोजन की अपनी शुरूआत में ही जता दिया कि हिन्दी का वहां कोई स्थान नहीं है। कलाकार  विभा गहरोत्रा ने भी उनकी इस मंशा पर पूरी तरह से मोहर लगायी। अब बारी मेरी थी। जानबूझकर हिन्दी में बोला। कहीं कोई दिक्कत नहीं थी। हाॅल खचाखच भरा था और तमाम लोग मुझे समझ रहे थे। यह बात इसलिए लगी कि बाद में प्रष्नों का जो दौर प्रारंभ हुआ, उसमें सब के सब बजाय मेरे अंग्रेजी बोलने वाले मित्रों से आधुनिक तकनीक और कला पर सवाल पूछने के मुझसे ही बहुत कुछ जानने को उत्सुक थे। ‘न्यू मीडिया आर्ट’ पर हिन्दी में दिए तर्क और कला संवेदना की व्याख्या को समझते हुए भी विडम्बना यह थी कि राहुल और विभा मंच पर अंत तक अंग्रेजी पर ही अडे रहे, मैं हिन्दी पर। प्रष्नो ंकी बोछार अंग्रेजी में ही हुई, निरंतर होती रही परन्तु मैं हिन्दी में जवाब दर जवाब देता रहा। सुकुन भी हुआ कि मुझे सुनने को अंत तक वहां आए लोग उत्सुक रहे और उन्होंने मेरे तर्क और दिए जवाबों से संतुष्टि भी जताई। बाद में उनकी सराहना और मीडिया के रूख से यह भी लगा कि मेरी हिन्दी वहां चल गई थी-अच्छे से।
इस परिप्रेक्ष्य में मुझे यह भी लगता है कि भारत में अभी भी पर्यटन, कलाएं और संस्कृति जनरुचि का विषय शायद इसीलिए नहीं बन पायी है कि यहां पर अव्वल तो कला के सार्वजनिक आयोजन ही नहीं होते और जो होते हैं, उनमें हिन्दी कहीं नही होती जबकि इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि आज भी आम जन की भाषा हिन्दी ही है। हिन्दी में कला आलोचना और संगीत, नृत्य, नाट्य पर बेहतरीन सामग्री के नहीं होने का जो रोना रोया जाता है, उसका एक बड़ा कारण क्या यही नहीं है कि हमारे यहां जो कुछ नवीन होता है, उसमें हिन्दी का कहीं कोई स्थान ही नहीं रखा जाता। जो कुछ छपता है, अंग्रेजी में। जो कुछ प्रस्तुत किया जाता है अंग्रेजी में। हिन्दी की शायद वहां जरूरत ही नहीं महसूस की जाती। हिन्दी को फिर क्यों दोष दिया जाए! 
बहुतेरे हिन्दी की बेचारगी पर अफसोस जताते हैं परन्तु मुझे अपनी हिन्दी कभी बेचारी नहीं लगती। इसलिए कि मेरे चिंतन का आधार यही भाषा है। इसलिए भी कि मुझे विचार का आलोक इसी से मिलता है और इसलिए भी कि हिन्दी ने ही मुझे सब कुछ दिया है। मुझे पता है, मेरे हिन्दीभाषी बहुतेरे मित्र अंग्रेजी का सहारा इसलिए लेते हैं कि उनके पास उस भाषा के अलावा अपने को व्यंजित करने का खास कोई विचार नहीं है। अंग्रेजी का महत्व बहुत से स्तरों पर इसीलिए शायद है कि इसके जरिए आप अपने को स्थापित करने की जुगत बिठा सकते हैं। पर हिन्दी हमारी संस्कृति है और इसी से हम अपने आपको जड़ों से जोड़े रख सकते हैं। जड़ो से विलग होकर दीर्घ समय तक कोई अपने को खड़ा नहीं रख सकता है। इसीलिए मुझे गर्व है, मैं हिन्दी में बतियाता हूं, हिन्दी पढ़ता हूं और अपने को बेहतरीन ढंग से संप्रेषित करने के लिए इस भाषा को चुनता रहा हूं। अपनी भाषा हिन्दी का मैं आभारी हूं। नमन हिन्दी। नमन! 


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