Sunday, September 20, 2015

प्रीत घुली आंचलिकता


सत्यनारायण जी अपने लिखे में धोरों की धरा का माधुर्य बंचाते हैं। उनके लिखे अनूठे गद्य और पद्य में ठौड़-ठौड़ आंचलिकता की सौंधी महक है। सद्य प्रकाशित  कविता संग्रह ‘जैसे बचा है जीवन’ को ही लें। प्रीत रंग घुली कविताओं का यह अनूठा कैनवस है। स्मृतियां के वातायन में ले जाता। धोरों का सांगीतिक आस्वाद यहां है। मन करता हैं, लिखे को गुनें। सहेज लें सदा के लिए। 
बिम्ब, प्रतीक और मुहावरों में हृदय का अंतरतम जैसे उद्घाटित होता कवि का सच बहुतसे स्तरो पर आपका-हमारा सच बन जाता है। शब्द संवेदनाओं के मर्म में वह राजस्थान की रेत से हेत कराते हैं। इसीलिए तो तपती रेत, पगथलियों, भोलावण, रोहिड़ा, मोरचंग, फोग, लाय, हेला, कांसे के थाल जैसे बहुतेरे बरते कविता संग्रह के उनके शब्दों में छलकता प्रीत का माधुर्य हममें बस-बस जाता है।
सत्यनारायण जी की कविताएं एक तरह से स्मृतियों का किवाड़ खोलती है। कहन के किसी संदर्भ का द्र्श्यालेख बंचाती हुई। आस्वाद करें कविता की इन पंक्तियां का, 
‘तपती रेत पर
तुम्हारी पगथलियों की छाप
तमाम आंधियों के बावजूद
यों की यों मंडी हुई है
...कभी आओ तो
समन्दर से पूछेंगे इसकी कथा।’ 
और यही क्यों, उनकी कविताएं शब्द के भीतर बसे शब्द से भी अनायास ही साक्ष्यात कराती है. अर्थ गर्भित संवेदनाओं के अनूठे बिम्ब इनमे हैं-
‘मैं धीरे से
उसके कान में फुसफुसाया
वह बोली
और धीरे से
नहीं तो देवता सुन लेंगे..’ 
यहां  लिखने भर के लिए ही नहीं हैं, शब्द। इनमें मौन का वह विराट भी अर्न्तनिहित है जिसमें कुछ नहीं कहते हुए भी सबकुछ खोल के रख दिया जाता है। इसीलिये कहूँ, सत्यनारायण जी की कविताएं अल्प शब्दों में संवेदनाओं का गहरा आकाश रचती है। ‘मैं भेजूंगा/कुरजां के संग/सन्देश, ’‘‘कभी बताओगे/फोग’, ‘धोरों में बहती है/एक नदी/मेरे भीतर हिलोरें लेता है/एक समन्दर’, ‘धोरों पार से सुनायी देता है/एक हेला’ जैसी लूंठी-अलूंठी व्यंजनाओं में सत्यनारायण जी ने अपने इस संग्रह में प्रीत से जुड़े संदर्भों को सर्वथा नया मुहावरा दिया है। 
प्रीत से जुड़ी संवेदनाओं का मार्मिक कहन है, संग्रह की उनकी कविताएं। हां, इनमें गुम हुई प्रीत की तलाश  की आहटें भले शब्द दर शब्द है पर सच यह भी है कि प्रीत के बिछोह में उदासी पसराता सन्नाटा नहीं बुनती उनकी यह कविताएं। प्रीत की सुगंध घुली स्मृतियों में मिट्टी की सौंधी महक इनमें है। यह है तभी तो ‘तपते धोरों के बीच/रोहिड़े के/फूलों की तरह/बचाया है मैंने तुम्हें/अपने भीतर’ और ‘आंख बस/जरा सी झपकी/तुम कब/चली आयी भीतर/चुपचाप’ सरीखे शब्द कहन में वह अपने संप्रेषण का आग्रह नहीं रखते हुए भी चुपके से पाठक के मन में सदा के लिए बस जाते हैं। 


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