Sunday, November 29, 2015

अनुभूतियों का सौन्दर्यान्वेषण

राजस्थान की राजधानी जयपुर में कलाओं पर "जयरंगम" का आयोज़न महत्ती पहल है.  कला प्रदर्शनी, आर्ट कैंप के अलावा आम जन को कलाओं से जोड़ने के लिए "संवाद" जैसे कार्यक्रम भविष्य की उम्मीद जगाते हैं. कलाओं पर अंतः संबंधों पर एक सत्र में संवाद रखा गया. इस नाचीज़ ने उस स्तर का संयोज़न किया। सुखद लगा, इसलिए कि उसमे कत्थक नृत्यांगना रीमा गोयल, प्रख्यात रंगकर्मी, निर्देशक रंजीत कपूर, युवा चित्रकार अमित कल्ला, बीससूत्री कार्यक्रम की अध्यक्ष और लेखिका ज्योतिकिरण, दैनिक भास्कर के विकास सिंह, ख्यात कलाकार विद्यासागर उपाध्याय के संग कलाओं के सरोकारों पर महत्ती चर्चा हो सकी. कलाओं के अंतर्संबंधों पर विमर्श की राह खुली।
बहरहाल, जयरंगम में और भी नित्य नए आयोज़न कलाओ पर हुए.

"जयरंगम आर्ट स्ट्रोककैटलॉग 
आयोज़कों के आग्रह पर "जयरंगम आर्ट स्ट्रोक" का कैटलॉग लिखने का फायदा यह भी हुआ कि कला प्रदर्शनी के लिए आयी कलाकृतियों का घूँट-घूँट आस्वाद हुआ. मुझे लगता है सौ से अधिक पृष्ठ का कैटलॉग भी जयपुर के कलाकारों की कला का महत्ती दस्तावेज बन गया है. आवरण कलाकार मित्र विनय शर्मा सृजित है.

"जयरंगम आर्ट स्ट्रोक" के लिए लिखे कैटलॉग की कुछ बानगी मित्रों की आग्रह पर यहाँ -

चित्रकला मन की भाषा है। संवेदनाओं से रचा आकाश! अनुभूतियों के गान में वहां स्मृतियां झिलमिलाती है। वैष्विक स्तर पर सूचना और संचार प्रौद्योगिकी ने कलाकारों के स्थानिक भेद को भले बहुत से स्तरों पर समाप्त कर दिया है परन्तु रंग बरतने की तकनीक, रूप विन्यास और माध्यम से प्रकट होने वाले बोध से यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि राजस्थान की कला के इस दौर में बहुत कुछ महत्वपूर्ण भी निकलकर सामने आ रहा है। स्वाभाविक ही है कि कला का यह दौर मूल्यांकन की मांग भी करता है। तरह-तरह की छवियों में कला का जो नया सौन्दर्यषास्त्र विकसित हो रहा है उसमें पारम्परिक रूपो के साथ प्रयोगधर्मिता का अपनापा है। 
बहरहाल, कलाकृतियों के अपने तई अर्थ ढूंढने लगा तो लगा, नए कलाकार अर्थ के आग्रह से मुक्त होते हुए भी लोक संवेदना से जुड़े हुए हैं। मसलन अदिती अग्रवाल ने चारकोल में सूखे रूंख में जीवन से जुड़ी विसंगतियों को तो उभारा है परन्तु अष्व के बहाने जीवन गति का भी संकेत किया है। अमित हारित ने एक्रेलिक में पीले और हरे पाष्र्व में बारीक रेखांकन में लोक कलाओं से अनुप्रेरित आकृतियों की सुरम्य दीठ दी है तो रंगो के उत्सवधर्मी लोक में स्मृतियों का गान कराती सरीखी है अमित कल्ला की कलाकृतियां। चटख रंगों में पारम्परिकता का छंद रचती भीमसिंह हाडा की दमयन्ती और राजस्थानी परिवेष बयां करती महिला का चित्र और गौरीषंकर सोनी की गाढ़े रंगों के सांचों से उभरती, हवा में लटकी सरीखी मानवाकृतियों में छाया-प्रकाष के जरिए संवेदनाओं का गहरा आकाष बुना गया है। लाखन सिंह जाट, सुरेन्द्र जांगीड़, संजय वर्मा, पवन शर्मा, आषीष श्रृंगी, मुकुल मिश्रा, मनीष शर्मा, मुकेष शर्मा, श्वेत गोयल, मदन मीणा, हंसराज कुमावत, दीपक खंडेलवाल की कलाकृतियां प्रयोगधर्मिता के ताने-बाने में परम्परा की अपने तई सौन्दर्य सर्जना करती है। इन कलाकृतियों में अनुभूतियों का संवेग रेखाओं की नियंत्रित गति और रंगो के सुमधुर संयोजन से गहरे से व्यंजित हुआ है। यह महज संयोग ही नहीं है कि इन कलाकारों की कलाधर्मिता सांस्कृतिक सक्रियता में कला की बंधी-बंधायी अवधारणात्मक सीमाओं से बहुत से स्तरों पर मुक्त है। भवानीषंकर शर्मा की कलाकृतियों में कैनवस पर धूप में छाया सरीखी मानवाकृतियों से औचक उभरते रंग अनुभूतियों का अनुठा भव हमारे समक्ष रखते हैं। हर षिव शर्मा दृष्यानुभूतियों में रंग संवेदना का जैसे ताना-बाना बुनते हैं। स्त्री देह की लोच में घुलते रंगो के जरिए वह बीते किसी क्षण के भाव को गहरे से व्यंजित करते हैं।
लालचंद मारोठिया पेड़-पौधों, जीवाष्म और प्रकृति के नाना रूपों की सर्वथा नयी दीठ हमें देते हैं। किषोर सिंह और जगमोहन माथोडि़या की कला में संवेदनाओं का झीना राग है पर रंग अंवेदते वह परम्परा से जुड़ा छन्द भी अंवेरते हैं। भुवनेष जैमिनी, एल.एन. नागा, अषोक गौड़, अर्जुन प्रजापति के षिल्प में मूर्त-अमूर्त में देह का गान है तो भावों की मिठास भी। आकृतियों के गढ़न की गीतात्मक लय में इन कलाकरों ने सौंदर्य की अनूठी षिल्प सर्जना की है। ऐसे ही लोचन उपाध्याय ‘पावर आॅफ क्लाॅथ’ में भिन्न वस्तुओं से फूलों के गुलदस्ते सरीखी रूपाकृति में मोहक छन्द हमारे समक्ष रखते हैं तो सुरभि सोनी ने ‘तरंग’ और ‘सनफिल्ड’ कलाकृति में बिखरे रंग और रेखाओं की ओप आकृष्ट करती है। मीनाक्षी कासलीवाल शैल चित्रों की मानिंद धुमिल होते रूप में रंग संवेदना के साथ ही घेरे अंदर घेरे की रेखीय लय में अर्थ के नए गवाक्ष हमारे समक्ष जैसे खोलती है। डाॅ. अर्चना जोषी के रंग समृद्ध कैनवस में आकृतियों की ओप अलग से ध्यान खींचती है तो मिक्स मीडिया में मिनू श्रीवास्तव ने काले, लाल, हरे, नीले रंगो के चटखपन के साथ ही छाया-प्रकाषीय के रेखीय आयामों में समय की सांगोपांग व्यंजना की है। आर.बी. गौतम की मानवीय संरचनाएं जीवन में हो रहे बदलावों के साथ आधुनिकता की समय संवेदना सरीखी है तो एस.शाकीर अली ने मिनिएचर में इतिहास और लोक से जुड़ी संवेदना को जैसे अपनी कला में जीवंत किया है। षिखा राजोरिया ने बच्चों की उल्लासधर्मिता में आनंदानुभूति के क्षणों को कैनवस पर सपनों की उड़ान में रूपान्तरित किया है तो सोहन जाखड़ ने मिक्स मीडिया में ‘सैलर’ श्रृंखला में बच्चों के खिलौने और मानवीय आवष्यकता से जुड़ी वस्तुओं की उपयोगिता के रंगो से अनूठे अर्थ उकेरे हैं।
चिंतन उपाध्याय का संस्थापन बुनावट के जरिए जीवनगति को व्यंजित करता आधुनिकता का आकाष रचता कल्पना की मौलिक दीठ लिए है। सुधीर वर्मा ने रेखाओं के गत्यात्मक प्रवाह में नायिका भेद के साथ अष्व से जुड़े संदर्भों में रंगों का माधुर्य रचा है तो सुप्रिय शर्मा ने रेखाओं की बारीक लय में पषु-पक्षियों के साथ जीवन से जुड़ी लय को मैथिली लोक कला से आधुनिकता की संवेदना में जैसे रूपान्तरित किया है।
विद्यासागर उपाध्याय रंगो के अप्रितम चितेरे हैं। उनका अमूर्तन गत्यात्मक प्रवाह लिए है। रंग-रेखाओं के बिम्ब कोलाज में उनका कैनवस दृष्यों का चलयमान भाव लिए हमारे समक्ष जैसे उद्घाटित होता है। वीरबाला भावसार रेत से हेत कराती अपनी कलाकृतियों में स्मृतियों का पाठ बंचाती है। सुनीत घिल्डियाल की एक कलाकृति में रेखाओं का रंग उजास मोहने वाला है। ग्लोब का दिक् यहां है। टेक्स्चर और रेखाओ की सघन संवेदना जीवननुभूतियों को धुसरित रंगो में जैसे खास ढंग से व्यंजित करती है। शबीर हसन काजी रेखीय मानवाकृतियों में प्रतीक और बिम्बों के जरिए कैनवस के आंतरिक दर्षन को जैसे व्यंजित करते हैं। गोपाल
खेतांची ने बारहमासा की अपणायत में नायक-नायिका और मौसम के परिवेष की सुरम्य व्यंजना कैनवस पर की है तो नाथूलाल वर्मा और समन्दर सिंह खंगारोत की कलाकृतियां रंगो की सुघड़ता में परम्परा का सांगीतिक राग सुनाती सरीखी है। विनय शर्मा ने अपने स्टूडियो को केन्द्र में रखते अतीत को कैनवस पर सर्वथा नए ढंग से व्यंजित किया है। उनकी नाट्यमय रूपाकृतियों में मिनिएचर की एप्रोच तो है पर वहां रंगो और रूपाकारों की आधुनिकता भी है। 
बहरहाल, भिन्न माध्यमों में ‘जयरंगम’ के लिए कलाकारों ने दृष्टि का विस्तार किया है। इन कलाकृतियों में हमारा समय और समाज अपनी तमाम स्मृतियों, विस्मृतियों, खामियों और बेशक विशेषताओं के साथ मौजूद है। सौन्दर्य हमारी दृष्टि में है। दीठ के विस्तार में! ‘जयरंगम’ कला प्रदर्षनी की कलाकृतियां कलाकर्म में दीठ की बढ़त ही है।

1 comment:

Unknown said...

very nice & useful. M M Tiwari