Sunday, February 7, 2016

अन्तःसौन्दर्य का गान

स्वामी संवित सोमगिरी अभियांत्रिकी अध्यापन से बरसों तक जुडे़ रहे हैं पर मन वैराग्य में रमा, सो वेदान्त का अध्ययन व साधना करने सब कुछ छोड़-छाड़ सन्यासी हो गए। वेद-पुराणों के साथ ही भगवद्गीता पर उनकी सूक्ष्म दीठ के प्रकाषित साहित्य ने सदा ही मन मोहा है पर इधर सद्य प्रकाशित उनका काव्य संग्रह ‘प्रणव ने हृदय में गाया’ पढ़ते प्रकृति और जीवन के नए संदर्भों से साक्षात् होता है। 
उपनिषदों के आलोक का हममें वास कराता यह ऐसा संग्रह है जिसमें किसी सन्यासी की अनुभूतियो की अनूठी दीठ है। प्रकृति के विरल अभिप्राय हैं तो संवेदनाओ की वह दार्षनिक व्यंजना भी जिसमें प्रकृति और व्यक्ति के होने की तलाश को नए अर्थ दिए गए हैं। 
प्रकृति और जीवन के बाह्य परिवेष के सौन्दर्य के बहाने भीतर के राग की रस वृष्टि यहां है। यह है तभी तो सोमगिरिजी जी संग्रह में अपने को पूर्णता से भरने का आग्रह करते ‘मुझे आकाष कर’ जैसे शब्दों में वात्सल्य को नए अर्थ देते आंखों में आकाश और क्षितिजों को पलकों में भरने को उद्यत होते हैं। 
‘प्रणव ने हृदय में गाया’ रूपी अपने कविता घर में वह ‘गंगा-मां’ से संवाद करते हैं तो ‘श्रीगुरू-अवतरण’ कविता में शब्दों की जैसे गागर छलकाते  हैं, ‘नर तन थरकर/आये गुरूवर/समरस करने/बाहर-अंदर’। ऐसे ही हृदय के अंतरतम भावों का आकाष रचते सोमगिरिजी ‘ओ सूरज! तुम मुझेमें उगो’, ‘ऐसा दो सुनसान मुझे’, ‘षब्दों! सुनो-मत पहनो पराये वसन’, ‘शिल्पित-संस्कृत’ जैसी शब्द व्यंजना में अंतर्मन संवेदनाओं के मर्म से ठौड़-ठौड़ साक्षात् कराते हैं। संग्रह में प्रकृति  और मानवेतर का अंष-अंष शब्दोद्घाटन है। जो कुछ देखा-सुना और छूआ जा सकता है, वही नहीं बल्कि उससे परे की संवेदना को भी इसमें गहरे से गुना और बुना गया है। प्रकृति के अनूठे अभिप्राय संग्रह में है तो अनुभूति की तीव्रता में मर्मस्पर्षी बिम्बों का अनूठा भव भी रचा गया है। यह है तभी तो इसमें बरते शब्द संवेदना की हमारी आंख बनते बहुत कुछ वह दिखाते है जिसे सामान्यतः हम देख नहीं पाते हैं। 
संग्रह में सोमगिरिजी के काव्य संकेत मन को मथते हैं, शब्द नहीं शब्द से जुड़ी संवेदना इसी कारण औचक, बार-बार हममें बसती है। औचक केनोपनिषद् के पढ़े को फिर से जैसे जीने लगता हूं। केनोपनिषद् में ईष्वर, ब्रह्म, परमात्मा के स्वरूप को गुरू द्वारा समझाने के बाद भी षिष्य की फिर से जिज्ञासा है, ‘उपनिषदं भो ब्रूहीति’-मुझे उपनिषद् कहिए। शब्द जहां पहुंच नहीं पाते, सोमगिरिजी के भाव वहां पहुंच-पहुुंच फिर से कुछ और जानने को प्रेरित करते हैं। मन विचारने लगा है, कविता क्या है? अन्तःसौन्दर्य का गान ही तो। लय में अंवेरा संवेदना राग। तो कहूं, ‘प्रणव ने हृदय में गाया’ इसी की व्यंजना है।

कविता संग्रह: प्रणव ने हृदय में गाया
कवि: स्वामी संवित् सोमगिरि
प्रकाषक: मानव प्रबोधन न्यास, शिवबाड़ी, बीकानेर
मूल्य: एक सौ पचास, पृष्ठ: 128


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