Tuesday, March 1, 2016

अदेखे की दृष्य सर्जना

दृष्टिहीन बच्चों के छायांकन की चित्र प्रदर्शनी ‘ध्वनियां’

कलाएं कल्पना और अनुभूति का संयोजन है। आंतरिक चक्षु के समक्ष उद्घाटित होते भले कलाओं को शब्दों से व्यक्त नहीं किया जा सके, पर वस्तुगत दृष्टि से जाना जा सकता है। छायांकन को ही लें। प्रकाश-छाया प्रभाव से सृजित इस कला में जो कुछ दृष्टि का सच है, वहीं नहीं संवेदना का मर्म भी उद्घाटित होता है। 
बहरहाल, अभी बहुत समय नहीं हुआ, जवाहर कला केन्द्र में दृष्टिहीन बच्चों के छायाचित्रों की प्रदर्शनी के बारे में पढ़ा था। लगा, बगैर दृष्टि कैमरे सेे कैसे दृश्य को संजोया जा सकता है! छायाकार मित्र महेश स्वामी एक रोज जिद कर प्रदर्शनी दिखाने ले गए। पहुंचा तब भी अनमनापन था, पर जब छायाचित्रों को देखा तो विश्वास नहीं हुआ। बगैर दृष्टि ध्वनियों ने जो सृजित करवाया, क्या वह इस कदर मोहक हो सकता है!  दृष्टिहीन बच्चों ने कैमरे से जो सिरजा उसमें प्रकृति में पसरे मौन की व्यंजना थी, नदी थी, नाव थी और था प्रकाश से टिमटिमाता लहरमय नीर। दृश्य और भी थे जिनमें कहीं बिखरे सूखे पेड़ की पत्ती, नदी की पाल पर रखी बैंच पर बैठे दो जन और पेड़ो की छांव के साथ प्रकृति की सौरम का छायांकन से रचा सौंदर्य था तो कहीं केवल कदमों की सरसराहट भर भी उनके कैमरे ने कैद की थी। एक छायाचित्र मैदान में बच्चों की खेलकूद भरी मस्ती को इंगित था तो एक में बाजार की हलचल थी। रेत, साईकिल, बरसात और परिवार से जुड़ी ध्वनियों  के आधार पर सृजित छायाचित्र देखने के भिन्न आयामों को जैसे हमारे समक्ष रख रहे थे। अचरज हुआ, आखिर कैसे बगैर दृष्टि के दृश्य संवेदनाओं के ताने-बाने को कैमरे से रचा गया होगा? पर पष्चिम बंगाल के दृष्टिहीन छायाकार अंजन, मिलन, फणी, दुलाल और टिंकू को छायांकन के लिए प्रेरित, दक्ष-प्रषिक्षित किया युवा फिल्म निर्माता, छायाकार और लेखक चन्दन राठौड़ और पद्मजा शर्मा ने। कभी नेत्रहीन छायाकार के बारे में फिल्म देखकर चंदन-पद्मजा के मन में दृष्ठिटीहन बच्चों से छायाकारी कराने का खयाल आया और दोनों ही इसके लिए प्रयास में जुट गए। उनके खयाल को बहुतेरों ने मजाक में उड़ाया तो कुछ को यह नागवार भी लगा। अंततः बंगाल के हुगली के सेवाडाफुली स्थित ‘सोसायटी फाॅर ब्लाइण्डस’ में यह दृष्टिहीन बच्चों को छायांकन के लिए तैयार करने की कार्यषाला हो पाई। लकड़ी के फ्रेम अी अनुभूति, अनुमान से दृष्यों को ध्वनि आधार पर पकड़ने और बहुतेरे ऐसे ही प्रयोग रंग लाए और अल्प समय में दृष्टिहीन बच्चों ने छायांकन कला को अपना लिया।
दृष्टिहीन बच्चों से उनके छायांकन अनुभवों पर संवाद हुआ तो लगा, उन्होंने ध्वनियों की अनुभूति से बाह्य सौंदर्य को आंतरिक चक्षुओं से उकेरा है। यह भी लगा आंख बहुत बार धोखा देती है, आप देखते हुए भी वह नहीं देख पाते जो महत्वपूर्ण होता है। इस दृष्टि से दृष्टिहीन बच्चों की ’ध्वनियां‘ चित्र प्रदर्शनी ने बहुतेरे स्तरों पर यह भी जैसे समझाया कि देखना आंखों से ही नहीं होता, हमारी साफ समझ से भी होता है। आखिर कलात्मक समझ परिवेश के अंतज्र्ञान के साथ समाप्त नहीं होती बल्कि वह इसे एक अर्थपूर्ण आकार देने का प्रयास ही तो करती है। 
मुझे लगता है ’ध्वनियां‘ प्रदर्षनी अनुभूतियों और कल्पनाओं का ऐसा सुरम्य ताना बाना है जिसमें छवियां प्रतिध्वनित हुई है। दृष्टिहीन विद्यार्थियों ने कैमरे के बहाने संवाद किया है- अदेखी प्रकृति से और जीवन से। उस दीठ से जो सदा उनके लिए अदीठ रही है, पर उनके कैमरे से हुए संवाद ने देख नहीं पाने की उनकी स्थाई चुप्पी को छायाचित्रों के जरिए एक तरह से तोड़ा है। आंख नहीं होने पर प्रकृति में बिखरे सौंदर्य और जीवन के सरोकारों से अलग-थलग होने की बाधा को जैसे समाप्त किया है। 
कैमरे ने कुछ अलग नहीं किया है, पर बाह्य जगत, दृश्य के भिन्न आयामों से इन छायाचित्रों के जरिए दृष्टिहीनों को आकाष दिया है। एक संवाद स्थापित हुआ है-ध्वनियों के जरिए दृश्य की अनंतता से। और उससे शायद न देख पाने की इनकी आंतरिक बेचेनी का शमन भी हुआ है। यह है तभी तो दृृष्टिहीन छायाकारों से संवाद में उनके छायांकन कला से जगे भीतर के उत्साह को अनुभूत कर सका। सहज सवाल संवाद में यह भी हुआ कि दृष्टिहीन ये बच्चे कैमरा लिए क्यों उस अदृश्य के पीछे भाग रहे थे जो उनकी आंखे नहीं देख सकती। जवाब मिला, ’कैमरे ने हमारी अनुभूतियों और दृश्य की कल्पनाओं को जीवंत करने का मार्ग दिया है। हम जो कल्पनाएं ध्वनियों के आधार पर करते रहे हैं, अनुभूतियों को संजोते रहे हैं, उन्हें छायाचित्रों के जरिए प्रकट कर रहे हैं। शब्द से जो बंया नहीं कर सकते, छवियां वह शायद बता रही हैै।‘
सच भी है, छायांकन कला की सांकेतिक भाषा है। कल्पना और अनुभूतियों से बाह्य परिवेश को फिर से नए रुप में सृजित करने की। इसके लिए बाहरी आंख की कहां जरुरत है! आंतरिक चक्षु ही पर्याप्त है। दृश्य के लिए समझ का साफ होना जरुरी है। कलाएं समझ को पाक-साफ ही तो करती है। दृष्टि वहां कहां बाधक है!

2 comments:

डॉ. मोनिका शर्मा said...

सार्थक टिप्पणी लिखी है आपने | मैं भी गयी थी यह प्रदर्शनी देखने और बच्चों से मिली थी | आपने वही सब शब्दों में उकेर कर जीवंत का दिया जो वहां जाकर महसूस किया |

Dr. Rajesh Kumar Vyas said...

आभार!