Monday, October 9, 2017

रम्य रूप

''...दूर जहां तक नजर जाए पानी ही पानी। आसमानी की परछाई ओढ़े नीला पानी।...प्रकृति ने जैसे धरती को उपहार दिया है।...दो बेहद मोहक हरियाली से आच्छादित पहाड़ियां और बीच में बहता नीर। घाट पर जहां बैठा हूं, वहां नाव बंधी है और प्रस्तर खंड को तराश सिरजा धवल हाथी जैसे दूर तक फैले जल को निहार रहा है। सूंड उठाए। यह पहाड़ियों के मध्य बिखरे जल का रम्य रूप है। प्रस्तर निर्मित घाट...एशिया  का मानव निर्मित सबसे बड़ा जलाशय  है यह। पर गौर करता हूं, समुद्र सरीखा है यहां का दृष्य। हवा में बनती पानी की शांत लहरें....दूर तक जाती हुई और फिर से आती हुई।..'' 

"....घर लौटता सूर्य जैसे इन सब पर अपनी किरणों से जादू जगा रहा है। दूर तक पसरा जल...टापू और नीड़ पर लौटते पक्षियों के समूह को देख अनुभूत होता है किसी ओर लोक में हूं। 

सफेद संगमरमर पत्थरों से निर्मित घाटों पर अब सूर्यास्त से अंधेरा पसरने लगा है।...पर यह क्या! चन्द्रमा की धवल चांदनी में जयसमंद का सौन्दर्य और भी जैसे बढने लगा है। चांद की चांदनी में दूध से नहाए हाथी जैसे झील की ओर मुख करते हुए भी मुझसे कुछ और देर वहीं रूकने का आग्रह कर रहे हैं। मैं उनकी बात मान वहीं घाट पर बनी सीढ़ियों पर बैठ जाता हूं। विशाल प्रस्तर खंड को सामने रख सिरजे शिल्पटषिल्प सौन्दर्य पर पड़ती धवल चांदनी और दूर तक फैला झील का नीर। खंड-खंड अखंड! सौन्दर्य की जैसे रूप वृष्टि। ठंडी हवाओं के झोंके मन को विभोर कर रहे हैं। पता ही नहीं चलता, कितने घंटे ऐसे ही वहां बैठे गुजर जाते हैं। 

वन विभाग के विश्रामगृह का चैकीदार मुझे ढूंढते झील के घाट पर आ मुझे झिंझोड़ते हुए कहता है, ‘साब खाना नहीं खाना है?’ मैं कलाई में बंधी घड़ी पर नजर डालता हूं...अरे! रात्रि के 9 बज गए हैं।...उठकर विश्राम गृह की ओर लौट पड़ता हूं।... जयसमंद से विदा लेता हूं, यह कहते हुए-कल सूर्योदय पर फिर आऊंगा इन घाटों पर।"...

-'जनसत्ता', 9 अक्टूबर, 2017 'दुनिया मेरे आगे'

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