Friday, November 29, 2013

जीवन से जुड़े कला के प्रश्न

डॉ राजेश कुमार व्यास, देवर्षि कलानाथ शास्त्री, प्रयाग शुक्ल और मंगलेश डबराल  
कला के प्रश्न जीवन के प्रश्न है। जीवन स्थितियों और जीवन प्रवृतियों से जुड़े प्रश्न। कुछ दिन पहले जयपुर में प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रूप द्वारा राज्य सरकार के साझे से आयोजित वृहद कला आयोजन में देश के ख्यातनाम कलाकारों से संवाद, उनकी कलाकृतियों से रू-ब-रू होने का अवसर मिला तो सुखद लगा। कला समीक्षक, कलाकार आर.बी. गौतम, विनोद भारद्वाज, विद्यासागर उपाध्याय, मृदल भसीन, टिम्मीकुमार और उनके जैसे ही और कलाकारों के उत्साह से ही आयोजन परिणत हो पाया। पर, आवश्यकता नहीं होते हुए भी हिन्दीभाषी क्षेत्र में आंग्लभाषा का बोलबाला यहां भी अखरा।
बहरहाल, सुखद यह है कि साहित्य के साथ कलाओं पर भी जयपुर देश के बड़े संवाद केन्द्र के रूप में उभर रहा है। कलाओं से जुड़े जीवन प्रश्नों के एक सत्र में कवि, संपादक मंगलेश डबराल, प्रयाग शुक्ल, संस्कृत मर्मज्ञ कलानाथ शास्त्री के साथ एक सत्र में इस नाचीज ने भी भागीदारी की। सुखद यह था कि इस सत्र पर अंग्रेजी की छाया  नहीं थी। यह भी कि यही वह सत्र था जिसमें कला व्यापार से जुड़े सवालों की बजाय कला की संवेदनशीलता, उसमें निहित संवेगों और कलाकृतियों के अन्र्तनिहित पर बहुतरे मसलों पर विषद् चर्चा हुई। प्रयाग शुक्ल की ‘कला के अयोचित क्षेत्र’ की सूक्ष्म दीठ में कलाकारों को अनछूए के अन्वेषी, अयाचित क्षेत्रों का संदेशग्रहणकर्ता जैसी लयात्मक अभिव्यंजा मोहक थी। वह जब स्वामीनाथन, रामकुमार की यात्राओं और गायतोण्डे के महिनों तक कैनवस के समक्ष बैठकर सृजित उनकी कलाकृतियों पर बोल रहे थे तो बहुतेरी कलाकृतियां भी आंखो के समक्ष जैसे उद्घाटित हो रही थी। प्रयागजी कलाकृतियों और यात्राओं में गहरे से रमते हैं। ऐसा है तभी तो  उनका कहन मन को छूता है।
इसी सत्र में मंगलेश डबराल ‘कला में देखना’ से जब नाता करा रहे थे तो डच कलाकार फरमीर और खिड़की से आने वाले प्रकाश स्त्रोत के बहाने कलाओं के सर्जन को गहरे से जैसे जिया। कलाकृति का स्त्रोत कुछ भी हो सकता है, खिड़की से आता प्रकाश भी और औचक घटित कोई अनुभूति का क्षण भी। इसीलिए उन्होंने यह भी कहा कि कलाएं देखने की सघनता पर निर्भर करती है। मंगलेशजी कवि हैं सो उन्होंने जब कहा कि कविता हमारे समक्ष उड़ती-मंडराती रहती है-जो देख ले वह कवि। सच ही तो है! देखना दृश्य की संवेदना से ही जुड़ा भर नहीं है, इसमें अनुभूति को आत्मसात करने की दीठ भी तो है। रोंदे, रामकिंकर बैज, हिम्मत शाह, मदन लाल जैसे मूर्तिशिल्पियों ने जो घड़ा उसमें दिखने वाली वस्तु ही महत्वपूर्ण कहां है? वहां दृश्य से परे जीवन से जुड़ी उस छाया का अधिक महत्व है जिसे देखने वाला अपने तई सदा ही दूसरों से अलग व्यंजित करता रहा है।
    बहरहाल, जरूरी है कि भविष्य में भी कलाओं पर संवाद की इस तरह की परम्परा कायम रखी जाए। हाॅं, कलाओं पर विमर्श के लिए विषय चयन में भारतीयता और हमारी अपनी भाषा हिन्दी को न बिसराया जाए। विडम्बना यह है कि इधर अंग्रेजी की चमक-दमक से हर कोई मोहित है। अंग्रेजी लेखन, अंग्रेजी परिवेश की भयाक्रान्तता का इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा कि उस अंग्रेजी लेखन को पूजा जा रहा हैं-जिसमें हमारा अपना न तो अतीत है, न भविष्य और न अपनी भाषा हिन्दी में लिखे के भविष्य की किसी प्रकार की कोई आहट। भाषा का ज्ञान, बल्कि किसी भी क्षेत्र का ज्ञान व्यक्ति को संपन्न ही करता है परन्तु जब दैनिन्दिनी जीवन में हम अपनी भाषा को जीते हैं, उसी में हमारी सहजता है तो फिर क्या ऐसी मजबूरी है कि ऐसे आयोजनों का परिदृश्य और परिवेश अंग्रेजी में रचा-बसा ही हो! कहीं यह हमारी अपनी ही हीन भावना तो नहीं!

Tuesday, November 26, 2013

सौन्दर्य संवाहक चांद

कलाएं अंतरतम विचार, भावों का रहस्योद्घाटन है। अंतर के उजास की अभिव्यक्ति। सौन्दर्य का प्रकाष तभी है जब अंतर में उजास हो। अंतर का उजास भी तभी है जब कलाओं का हममें वास हो। इसीलिए तो कहें, कलाओं से ही है यह जीवन! सोचता हूं, चांद का सौन्दर्य उसकी कलाओं से ही तो है। उसमें से कलाओं का लोप होते ही अंधकारमय हो डराने लगती है रात। अमावस में चंद्रमा तमाम अपनी कलाओं को खो देता है, परिणति में ही विलुप्त होता वह काला और कुरूप हो जाता है। 

बहरहाल, पूर्णिमा में चांद की कलाएं लौट आती है। कलाओं से दीप्त होता वह फिर से लुभाता मन को भाने लगता है। कला का पर्व ही तो कार्तिक पूर्णिमा। अंतर के उजास का संवाहक। नदी, सरोवर में इसी दिन प्रवाहित होते हैं दीप। अंधकार को हरने।

कहते हैं, कार्तिक पूर्णिमा पर रात्रि में आसमान में जब स्वच्छ तारे निकलते रहते हैं तभी समृद्धि प्रदायिनी लक्ष्मी उपस्थित होती है। अंधकार हरने के लिए जले दीपकों को निहारने ही धरा पर आती है लक्ष्मी। जहां-जहां दीप वहां-वहां लक्ष्मी का वास। घर-घर जलते हैं दीप। देव मंदिर में, नदी के तीर पर। ऊंची-नीची, संकरी-दुर्गम तमाम जगहों पर जहां भी अंधकार का वास वहीं-वहीं जलता है दीप। दिया जलता है कि उजास हो। अंधियारे जीने के हम आदि प्रकाष से नहाएं। कार्तिक नहान माने अंतर उजास का स्नान।
Artist Vinay Sharma's Painting

पूर्णिमा में दीपदान से बड़ा और क्या दान! पूर्णमासी को ही तो गंगाजी जन्मी। तुलसी जन्मी। गंगास्नान को इसीलिए तो पूर्णिमा को उमड़ पड़ते हैं लोग। कहते हैं, इस दिन किया स्नान, दिया हुआ दान, जप और तप अक्षय होते हैं। अखूट। कभी नहीं समाप्त होने वाले। संयोग ही था कि इस बार कार्तिक पूर्णिमा में षिव के घर था, हरिद्वार।  हरिद्वार यानि हर द्वार। महादेव का घर। ऋषिकेष में वेगवती होकर अपनी प्रखरता जताती गंगा हरिद्वार में शांत और सौम्य है। गतिप्रिया। अविरल बहती गंगा यहां जीवन गति की ही तो संवाहक है। सांझ में गंगा घाटों पर विचरते औचक नजर चन्द्रमा पर ठहर गई। उसकी कलाओं से जैसे साक्षात् हुआ। अमावस के मुरझाए, तेजहीन चांद को देखा था। पूर्णिमा में उसे यूं ओज में देख सुखद लगा। लगा, चांद होले-होले मुस्करा रहा है। चांदनी बरसाता। कमल की भांति सुन्दर। यह खिला-खिला चांद था। अपनी तमाम कलाओं के साथ विराजमान।

कहते हैं, ब्रह्मा ने जब सृष्टि की रचना की तो चन्द्रमा ही उनकी सुन्दरतम रचना थी। चन्द्रमा रूप में मनुष्य को सौन्दर्य की सौगात ही तो दी थी ब्रह्मा ने। कोई कह रहा था, चांद हमेषा प्रसन्न रहता है इसीलिए उसे देखते सुख मिलता है। सुख वही तो दे सकता है, जो अपने से संतुष्ट हो। पर कुछ ऐसा हुआ कि चन्द्रमा उदास रहने लगा। अंदर ही अंदर उसके अंदर कुछ ऐसा घटा कि वह कुम्हलाने लगा। तेजहीन होता वह मुरझा गया। सिकुड़ने लगा। अमावस आते-आते वह लोप होता  काला और कुरूप हो गया। उसकी समस्त कलाएं समाप्त जो हो गयी! चन्द्रमा की यह दुर्दषा देख ब्रह्मा को दुःख हुआ। उन्होंने चांद को समझाया, ‘क्यों बना रखी है यह रोनी सूरत! हंसता-मुस्कराता क्यों नहीं? रोने से जिंदगी नहीं कटती। रोने से थोड़े ना होता है समस्याओं का हल। दुख हो, अभाव हो फिर भी तुम्हें मुस्कराना है। यही है जीवन। उसका सौन्दर्य।’ चन्द्रमा को बात समझ आ गयी। उसने फिर से मुस्कराना प्रारंभ कर दिया। लौट आई फिर से उसकी तमाम कलाएं। अमावस का अंधेरा छंट गया था। पूर्णिमा आते-आते इसीलिए वह फिर से अपने पूर्ण सौन्दर्य में निखर हमें मोहने लगता है। सोचिए, तमाम कलाएं है, तभी तो है चांद का यह सौन्दर्य।

Thursday, November 7, 2013

हवाओं को सुनें, रेशमा गुनगुनाती मिलेगी


रेशमा नहीं रही! जिन्होंने रेशमा को सुना है, उनमें से बहुतों के ज़हन में ‘लम्बी जुदाई...’ या फिर ‘हाय ओए रब्बा नहीं ओ लगदा दिल...’ गीत ही गूंज रहे होगें पर सच इतना ही नहीं है! वह गाती तो लगता, सुरों के कायदे को दरकिनार करता कोई बेपरवाह गा रहा है। उसे सुनते आरंभ के स्त्री सुरों के मर्दानापन की अनुभूति कुछ ऐसी ही होती पर थोड़ी देर में ही मन सुरों में लिपटे अलहदे फक्कड़पन, विरह के भावों में कुछ इस कदर रमता कि गान का वह बावरापन सदा के लिए हममें बस जाता। माटी की सौंधी महक में रेशमा के सुरों में आंधी उड़ाती रेत, पाकिस्तान लगती राजस्थान की सीमाओं से जुड़ी विरानगी, और खानाबदोश जीवन से जुड़ी संवेदनाओं को गहरे से अनुभूत किया जा सकता है। कल्पना करें, पाकिस्तान लगते जैसलमेर-बीकानेर की सीमा की किसी ढाणी की। रेत कंटिले तारों से उस पार उड़कर चली जा रही है। इस पार चली आ रही है। आती-जाती या कहें, उड़ती रेत में आंधी की तेजी भी है तो कभी दूर तक कहीं किसी के न होने का सन्नाटापन भी। रेशमा के अलहदे सुर ऐसे ही हैं। नाजुकता में भारीपन। उड़ती रेती की गूंज। कहीं  किसी एक जगह न रूक ठौड़-ठौड़ भटकने का अलमस्तपन। फक्कड़ता। कहीं कोई सधी हुई बुनावट नहीं। जो है, बस वैसा ही जैसा प्रकति ने गढ़ा है। सच! यही तो है प्रकृति का संगीत।
बहरहाल, याद पड़ता है, तब रेशमा कार्यक्रम देने जयपुर आयी थी। उनसे बातचीत हुई तो लगा, अरे! यह तो हमारे बीकानेर की ही हैं। बोल के वही अंदाज। वही मस्ती। मुंह में पान की लाली। एकदम घरेलू। कोई साज-सिंगार नहीं। खानाबदोश मिजाज। ‘आप भैन-भाई प्यार से सुनते रहे हैं। अला की खिदमत है।’ ....गायन पर बातें हुई पर लगा अपने ज़हन में बसे डेरे, पीर-फक्कीर, मजारें, कबीलों, मेले-मगरियों में उनका मन अटका हुआ था। मुझंे लगता है, रेशमा के सुरों में लोकसंगीत की सहजता इसीलिए अंत तक बची रही कि उसने अपने अतीत को कभी बिसराया नहीं। मांड में बसे रेशमा के सुरों में लोक का अनूठा आलोक है। गाया रेशमा ने गुजराती में भी है, सिंधी में भी और उर्दू में भी है पर पंजाबी और राजस्थानी के बोलों में जो माधुर्य का रस टपकता है, वह सच में अनूठा है। धोरां धरा में गूंजती रेत के सुरों का अपनापन उसमें है तो पंजाब की मिट्टी की मस्ती भी। इस बार रेशमा को सुनें तो गौर करें, ‘उठ गए गवांढों यार...’ या फिर ‘अखिया नूं रैण दे...’ गीत। हृदय के तारों को जैसे यह छूते हैं। संगीत में बसी रूह। 
यह विडम्बना नही ंतो और क्या है! रतनगढ़ के लोहा गांव में जन्मी खानाबदोश परिवार की रेशमा का कबीला देश विभाजन के समय हिजरत करके पाकिस्तान पहुंच गया था। वह भारत में ही होती तो उसकी आवाज को मिलने वाली मुहब्बत से क्या उसकी कला और नहीं निखरती! पाकिस्तान उसकी कला की कद्र कर ही कहां पाया! सुरों में निहित विरह की उसकी संवेदना और फक्कड़पन को सुनते लगता है धरती आसमां को बुला रही है। सोचता हूं, वह भारत में होती तो संगीत में आसमां का मुकाम ही पाती। ‘लम्बी जुदाई...’ से ही वह दिलों में छा गई तो सोचिए दूसरा जो उसने गाया है, उससे रेशमा को क्या पहचान मिलती! और फिर मुल्क की सीमाओं को लांघता रेशमा का खानाबदोश मन रमा तो सदा भारत में ही। सच! रेशमा कहीं नहीं गई है। वह हममें ही बसी है। हवाओं को सुनें, रेशमा आपको गुनगुनाती ही मिलेगी।

Monday, November 4, 2013

दीया जलाएं, पर जतन से...

अंधकार से लड़ने की कला का पर्व है दीपावली। उपनिषद कहते है, ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ माने अंधकार से प्रकाश की ओर गमन हो। आलोक की यही तो है हमारी आराधना। दीपावली इस आराधना का ही तो संवाहक पर्व है। हमारी संस्कृति में प्रातः सूर्य को अध्र्य देकर दिनचर्या प्रारंभ होती है। सूर्य को अध्र्य देकर यही तो कहा जाता है, हे सूर्य! तम को हर आलोकित करें। करते ही रहें। आपके तेज का अंश ग्रहण कर धरा भी आलोकित हो। और यही क्यों, सूर्य गमन के साथ ही संध्या फिर से दीप प्रज्ज्वलन के साथ हम करते हैं, दीप नमन। भाव होते हैं, ‘शुभम् करोति, कल्याणं, आरोग्यं, सुख-सम्पदा आत्म-वृद्धि प्रकाशाय, दुष्ट बुद्धि विनाशाय, दीपक ज्योति नमोस्तुते।’ प्रकाश के प्रति हमारा यह प्रणम्य भाव ही तो हमारी संस्कृति है। 
कथा आती है। चलते-चलते सूरज थक गया। निराश हो सोचने लगा, अंधेरे में चलने वाले को कौन दिखाएगा राह! आराम की चाह पर राह कहां! औचक उठ एक नन्हे से दीप ने विनम्रता से कहा, ‘आप जाएं सूर्यदेव! आराम करें। आपके आने तक प्रयास करूंगा कि अंधेरा जीवन पर हावी न हो। भले स्वयं इसके लिए मुझे मिटना पड़े।’ आश्वस्त हो सूर्यदेव घर की ओर चले। लौटे तो देखा बाती समाप्त प्राय हो चली थी। पर फिर भी अपने को जला, लौ को प्रज्ज्वलित किए था नन्हा सा वह दीप। सूर्य को देख बुझती लौ और तेजी से प्रकाशित हो शांत हो गई। दीपक बूझ चुका था परन्तु सूर्य मंे समाहित उसका तेज फिर से जीवन को आलोकित कर रहा था। 
यही तो है जीवन के उदात्त भाव। उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। माने उठो, जागो, जो श्रेयस्कर कार्य है, उसे पहचानो। सोचता हूं, कैसा होगा वह क्षण जब मृत्युशय्या पर लेटे होंगे बुद्ध। मन में विचार आ रहे हैं, उनका प्रिय शिष्य आनंद समीप खड़ा है। बुद्ध का बिछोह उसे सहन नहीं हो रहा है। दुखी मन से वह रोने लगा। शांत बुद्ध पूछ रहे होंगे, ‘अरे! रो रहे हो!’ आनंद ने तब कहा होगा, ‘प्रभु आप जा रहे हैं! अभी तो मुझे पूरा ज्ञान भी नहीं मिला!’ तभी बुद्ध ने शायद कहा होगा, ‘अत्तदीपो भव’ यानी अपने दीपक आप बनो। सच भी यही है! हमें अपने दीपक आप ही बनना है। अंतर आलोकित होगा तो सर्वत्र उजास ही उजास पाएंगे। याद करें, कभी रैदास ने भी तो कहा, ‘प्रभुजी तुम दीपक, हम बाती।’ दीपक की बाती बन हम आलोक के संवाहक बनें। 
दीपावली! यानी कार्तिक अमावस की घनघोर रात। यह वह रात्रि है जब चांद और सूरज एक राशि में आ जाते हैं। चांद अपनी तमाम कलाओं को खो देता है। इसी से पसर जाता है धरा पर घटाटोप अंधेरा। धरा के तम को हरने ही तो जलाते हैं हम दीप। घर-आंगन एक साथ असंख्य दीपकों की झिलमिल से रोशन हो उठता है संसार। अंधेरे की अब क्या बिसात! दीपावली के झिलमिलाते दीप मन में अवर्णनीय आनंद का ही तो उजास करते हैं। 
प्रकाश हो तो अंधकार का अस्तित्व ही न हो। कोई कह रहा था, अंधकार ने एक बार ब्रह्माजी से प्रकाश की शिकायत की। कहने लगा, यह हर वक्त मेरा पीछा करता रहता है। इसे रोकिए! ब्रह्माजी ने तुरंत प्रकाश को बुला भेजा। कहने लगे, ‘अंधकार ने तुम्हारी शिकायत की है।’ प्रकाश हैरान, बोला, ‘अंधकार ने! पर मैं तो उसे जानता ही नहीं। कभी उसे देखा ही नहीं। आप सामने लाईए।’ अंधकार को प्रकाश के सामने आने को कहा गया। कहते हैं, ब्रह्माजी तब से इन्तजार ही कर रहे हैं। प्रकाश के सामने अंधकार आने का अर्थ है, उसका अस्तित्व ही न रहना। फिर बताईए, वह आता भी कैसे! जहां ज्ञान है, वहीं तो प्रकाश है। अज्ञान के अंधेरे की प्रकाश के सामने आने की हिम्मत हो  भी कैसे सकती है! ज्ञान की ज्योति जल जाए तो फिर अज्ञान कहां ठहरेगा।
तो आईए, इस दीपावली मन से जलाएं एक नन्हा सा दीप। भीतर के अपने तम को हरने। संस्कृति का यही तो चिंतन है। चिरंतन। कालिदास इसीलिए तो कहते हैं, दीपक शरीर है। प्रकाश प्राण। एक दीप की लौ से दूसरा दीपक और दूसरे से तीसरा।...प्रकाश की लौ पकड़ कर ही हम बढ़ते जाएं आगे। और आगे। अंधकार को दूना होने दें। प्रकाश इसी से और अधिक शक्तिमान हेागा। आईए, दीया जलाएं। पर जतन से। यह दिया सत्य पर टिका हो। इसमें तप से तेल मिले। बाती दया से पूरी गयी हो। क्षमा की लौ हो।...तो आईए, इस दीपावली जलाएं-अंतर को आलोकित करता नन्हा सा एक दीप।