Monday, November 4, 2013

दीया जलाएं, पर जतन से...

अंधकार से लड़ने की कला का पर्व है दीपावली। उपनिषद कहते है, ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ माने अंधकार से प्रकाश की ओर गमन हो। आलोक की यही तो है हमारी आराधना। दीपावली इस आराधना का ही तो संवाहक पर्व है। हमारी संस्कृति में प्रातः सूर्य को अध्र्य देकर दिनचर्या प्रारंभ होती है। सूर्य को अध्र्य देकर यही तो कहा जाता है, हे सूर्य! तम को हर आलोकित करें। करते ही रहें। आपके तेज का अंश ग्रहण कर धरा भी आलोकित हो। और यही क्यों, सूर्य गमन के साथ ही संध्या फिर से दीप प्रज्ज्वलन के साथ हम करते हैं, दीप नमन। भाव होते हैं, ‘शुभम् करोति, कल्याणं, आरोग्यं, सुख-सम्पदा आत्म-वृद्धि प्रकाशाय, दुष्ट बुद्धि विनाशाय, दीपक ज्योति नमोस्तुते।’ प्रकाश के प्रति हमारा यह प्रणम्य भाव ही तो हमारी संस्कृति है। 
कथा आती है। चलते-चलते सूरज थक गया। निराश हो सोचने लगा, अंधेरे में चलने वाले को कौन दिखाएगा राह! आराम की चाह पर राह कहां! औचक उठ एक नन्हे से दीप ने विनम्रता से कहा, ‘आप जाएं सूर्यदेव! आराम करें। आपके आने तक प्रयास करूंगा कि अंधेरा जीवन पर हावी न हो। भले स्वयं इसके लिए मुझे मिटना पड़े।’ आश्वस्त हो सूर्यदेव घर की ओर चले। लौटे तो देखा बाती समाप्त प्राय हो चली थी। पर फिर भी अपने को जला, लौ को प्रज्ज्वलित किए था नन्हा सा वह दीप। सूर्य को देख बुझती लौ और तेजी से प्रकाशित हो शांत हो गई। दीपक बूझ चुका था परन्तु सूर्य मंे समाहित उसका तेज फिर से जीवन को आलोकित कर रहा था। 
यही तो है जीवन के उदात्त भाव। उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। माने उठो, जागो, जो श्रेयस्कर कार्य है, उसे पहचानो। सोचता हूं, कैसा होगा वह क्षण जब मृत्युशय्या पर लेटे होंगे बुद्ध। मन में विचार आ रहे हैं, उनका प्रिय शिष्य आनंद समीप खड़ा है। बुद्ध का बिछोह उसे सहन नहीं हो रहा है। दुखी मन से वह रोने लगा। शांत बुद्ध पूछ रहे होंगे, ‘अरे! रो रहे हो!’ आनंद ने तब कहा होगा, ‘प्रभु आप जा रहे हैं! अभी तो मुझे पूरा ज्ञान भी नहीं मिला!’ तभी बुद्ध ने शायद कहा होगा, ‘अत्तदीपो भव’ यानी अपने दीपक आप बनो। सच भी यही है! हमें अपने दीपक आप ही बनना है। अंतर आलोकित होगा तो सर्वत्र उजास ही उजास पाएंगे। याद करें, कभी रैदास ने भी तो कहा, ‘प्रभुजी तुम दीपक, हम बाती।’ दीपक की बाती बन हम आलोक के संवाहक बनें। 
दीपावली! यानी कार्तिक अमावस की घनघोर रात। यह वह रात्रि है जब चांद और सूरज एक राशि में आ जाते हैं। चांद अपनी तमाम कलाओं को खो देता है। इसी से पसर जाता है धरा पर घटाटोप अंधेरा। धरा के तम को हरने ही तो जलाते हैं हम दीप। घर-आंगन एक साथ असंख्य दीपकों की झिलमिल से रोशन हो उठता है संसार। अंधेरे की अब क्या बिसात! दीपावली के झिलमिलाते दीप मन में अवर्णनीय आनंद का ही तो उजास करते हैं। 
प्रकाश हो तो अंधकार का अस्तित्व ही न हो। कोई कह रहा था, अंधकार ने एक बार ब्रह्माजी से प्रकाश की शिकायत की। कहने लगा, यह हर वक्त मेरा पीछा करता रहता है। इसे रोकिए! ब्रह्माजी ने तुरंत प्रकाश को बुला भेजा। कहने लगे, ‘अंधकार ने तुम्हारी शिकायत की है।’ प्रकाश हैरान, बोला, ‘अंधकार ने! पर मैं तो उसे जानता ही नहीं। कभी उसे देखा ही नहीं। आप सामने लाईए।’ अंधकार को प्रकाश के सामने आने को कहा गया। कहते हैं, ब्रह्माजी तब से इन्तजार ही कर रहे हैं। प्रकाश के सामने अंधकार आने का अर्थ है, उसका अस्तित्व ही न रहना। फिर बताईए, वह आता भी कैसे! जहां ज्ञान है, वहीं तो प्रकाश है। अज्ञान के अंधेरे की प्रकाश के सामने आने की हिम्मत हो  भी कैसे सकती है! ज्ञान की ज्योति जल जाए तो फिर अज्ञान कहां ठहरेगा।
तो आईए, इस दीपावली मन से जलाएं एक नन्हा सा दीप। भीतर के अपने तम को हरने। संस्कृति का यही तो चिंतन है। चिरंतन। कालिदास इसीलिए तो कहते हैं, दीपक शरीर है। प्रकाश प्राण। एक दीप की लौ से दूसरा दीपक और दूसरे से तीसरा।...प्रकाश की लौ पकड़ कर ही हम बढ़ते जाएं आगे। और आगे। अंधकार को दूना होने दें। प्रकाश इसी से और अधिक शक्तिमान हेागा। आईए, दीया जलाएं। पर जतन से। यह दिया सत्य पर टिका हो। इसमें तप से तेल मिले। बाती दया से पूरी गयी हो। क्षमा की लौ हो।...तो आईए, इस दीपावली जलाएं-अंतर को आलोकित करता नन्हा सा एक दीप।


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