Tuesday, November 26, 2013

सौन्दर्य संवाहक चांद

कलाएं अंतरतम विचार, भावों का रहस्योद्घाटन है। अंतर के उजास की अभिव्यक्ति। सौन्दर्य का प्रकाष तभी है जब अंतर में उजास हो। अंतर का उजास भी तभी है जब कलाओं का हममें वास हो। इसीलिए तो कहें, कलाओं से ही है यह जीवन! सोचता हूं, चांद का सौन्दर्य उसकी कलाओं से ही तो है। उसमें से कलाओं का लोप होते ही अंधकारमय हो डराने लगती है रात। अमावस में चंद्रमा तमाम अपनी कलाओं को खो देता है, परिणति में ही विलुप्त होता वह काला और कुरूप हो जाता है। 

बहरहाल, पूर्णिमा में चांद की कलाएं लौट आती है। कलाओं से दीप्त होता वह फिर से लुभाता मन को भाने लगता है। कला का पर्व ही तो कार्तिक पूर्णिमा। अंतर के उजास का संवाहक। नदी, सरोवर में इसी दिन प्रवाहित होते हैं दीप। अंधकार को हरने।

कहते हैं, कार्तिक पूर्णिमा पर रात्रि में आसमान में जब स्वच्छ तारे निकलते रहते हैं तभी समृद्धि प्रदायिनी लक्ष्मी उपस्थित होती है। अंधकार हरने के लिए जले दीपकों को निहारने ही धरा पर आती है लक्ष्मी। जहां-जहां दीप वहां-वहां लक्ष्मी का वास। घर-घर जलते हैं दीप। देव मंदिर में, नदी के तीर पर। ऊंची-नीची, संकरी-दुर्गम तमाम जगहों पर जहां भी अंधकार का वास वहीं-वहीं जलता है दीप। दिया जलता है कि उजास हो। अंधियारे जीने के हम आदि प्रकाष से नहाएं। कार्तिक नहान माने अंतर उजास का स्नान।
Artist Vinay Sharma's Painting

पूर्णिमा में दीपदान से बड़ा और क्या दान! पूर्णमासी को ही तो गंगाजी जन्मी। तुलसी जन्मी। गंगास्नान को इसीलिए तो पूर्णिमा को उमड़ पड़ते हैं लोग। कहते हैं, इस दिन किया स्नान, दिया हुआ दान, जप और तप अक्षय होते हैं। अखूट। कभी नहीं समाप्त होने वाले। संयोग ही था कि इस बार कार्तिक पूर्णिमा में षिव के घर था, हरिद्वार।  हरिद्वार यानि हर द्वार। महादेव का घर। ऋषिकेष में वेगवती होकर अपनी प्रखरता जताती गंगा हरिद्वार में शांत और सौम्य है। गतिप्रिया। अविरल बहती गंगा यहां जीवन गति की ही तो संवाहक है। सांझ में गंगा घाटों पर विचरते औचक नजर चन्द्रमा पर ठहर गई। उसकी कलाओं से जैसे साक्षात् हुआ। अमावस के मुरझाए, तेजहीन चांद को देखा था। पूर्णिमा में उसे यूं ओज में देख सुखद लगा। लगा, चांद होले-होले मुस्करा रहा है। चांदनी बरसाता। कमल की भांति सुन्दर। यह खिला-खिला चांद था। अपनी तमाम कलाओं के साथ विराजमान।

कहते हैं, ब्रह्मा ने जब सृष्टि की रचना की तो चन्द्रमा ही उनकी सुन्दरतम रचना थी। चन्द्रमा रूप में मनुष्य को सौन्दर्य की सौगात ही तो दी थी ब्रह्मा ने। कोई कह रहा था, चांद हमेषा प्रसन्न रहता है इसीलिए उसे देखते सुख मिलता है। सुख वही तो दे सकता है, जो अपने से संतुष्ट हो। पर कुछ ऐसा हुआ कि चन्द्रमा उदास रहने लगा। अंदर ही अंदर उसके अंदर कुछ ऐसा घटा कि वह कुम्हलाने लगा। तेजहीन होता वह मुरझा गया। सिकुड़ने लगा। अमावस आते-आते वह लोप होता  काला और कुरूप हो गया। उसकी समस्त कलाएं समाप्त जो हो गयी! चन्द्रमा की यह दुर्दषा देख ब्रह्मा को दुःख हुआ। उन्होंने चांद को समझाया, ‘क्यों बना रखी है यह रोनी सूरत! हंसता-मुस्कराता क्यों नहीं? रोने से जिंदगी नहीं कटती। रोने से थोड़े ना होता है समस्याओं का हल। दुख हो, अभाव हो फिर भी तुम्हें मुस्कराना है। यही है जीवन। उसका सौन्दर्य।’ चन्द्रमा को बात समझ आ गयी। उसने फिर से मुस्कराना प्रारंभ कर दिया। लौट आई फिर से उसकी तमाम कलाएं। अमावस का अंधेरा छंट गया था। पूर्णिमा आते-आते इसीलिए वह फिर से अपने पूर्ण सौन्दर्य में निखर हमें मोहने लगता है। सोचिए, तमाम कलाएं है, तभी तो है चांद का यह सौन्दर्य।

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