Thursday, November 7, 2013

हवाओं को सुनें, रेशमा गुनगुनाती मिलेगी


रेशमा नहीं रही! जिन्होंने रेशमा को सुना है, उनमें से बहुतों के ज़हन में ‘लम्बी जुदाई...’ या फिर ‘हाय ओए रब्बा नहीं ओ लगदा दिल...’ गीत ही गूंज रहे होगें पर सच इतना ही नहीं है! वह गाती तो लगता, सुरों के कायदे को दरकिनार करता कोई बेपरवाह गा रहा है। उसे सुनते आरंभ के स्त्री सुरों के मर्दानापन की अनुभूति कुछ ऐसी ही होती पर थोड़ी देर में ही मन सुरों में लिपटे अलहदे फक्कड़पन, विरह के भावों में कुछ इस कदर रमता कि गान का वह बावरापन सदा के लिए हममें बस जाता। माटी की सौंधी महक में रेशमा के सुरों में आंधी उड़ाती रेत, पाकिस्तान लगती राजस्थान की सीमाओं से जुड़ी विरानगी, और खानाबदोश जीवन से जुड़ी संवेदनाओं को गहरे से अनुभूत किया जा सकता है। कल्पना करें, पाकिस्तान लगते जैसलमेर-बीकानेर की सीमा की किसी ढाणी की। रेत कंटिले तारों से उस पार उड़कर चली जा रही है। इस पार चली आ रही है। आती-जाती या कहें, उड़ती रेत में आंधी की तेजी भी है तो कभी दूर तक कहीं किसी के न होने का सन्नाटापन भी। रेशमा के अलहदे सुर ऐसे ही हैं। नाजुकता में भारीपन। उड़ती रेती की गूंज। कहीं  किसी एक जगह न रूक ठौड़-ठौड़ भटकने का अलमस्तपन। फक्कड़ता। कहीं कोई सधी हुई बुनावट नहीं। जो है, बस वैसा ही जैसा प्रकति ने गढ़ा है। सच! यही तो है प्रकृति का संगीत।
बहरहाल, याद पड़ता है, तब रेशमा कार्यक्रम देने जयपुर आयी थी। उनसे बातचीत हुई तो लगा, अरे! यह तो हमारे बीकानेर की ही हैं। बोल के वही अंदाज। वही मस्ती। मुंह में पान की लाली। एकदम घरेलू। कोई साज-सिंगार नहीं। खानाबदोश मिजाज। ‘आप भैन-भाई प्यार से सुनते रहे हैं। अला की खिदमत है।’ ....गायन पर बातें हुई पर लगा अपने ज़हन में बसे डेरे, पीर-फक्कीर, मजारें, कबीलों, मेले-मगरियों में उनका मन अटका हुआ था। मुझंे लगता है, रेशमा के सुरों में लोकसंगीत की सहजता इसीलिए अंत तक बची रही कि उसने अपने अतीत को कभी बिसराया नहीं। मांड में बसे रेशमा के सुरों में लोक का अनूठा आलोक है। गाया रेशमा ने गुजराती में भी है, सिंधी में भी और उर्दू में भी है पर पंजाबी और राजस्थानी के बोलों में जो माधुर्य का रस टपकता है, वह सच में अनूठा है। धोरां धरा में गूंजती रेत के सुरों का अपनापन उसमें है तो पंजाब की मिट्टी की मस्ती भी। इस बार रेशमा को सुनें तो गौर करें, ‘उठ गए गवांढों यार...’ या फिर ‘अखिया नूं रैण दे...’ गीत। हृदय के तारों को जैसे यह छूते हैं। संगीत में बसी रूह। 
यह विडम्बना नही ंतो और क्या है! रतनगढ़ के लोहा गांव में जन्मी खानाबदोश परिवार की रेशमा का कबीला देश विभाजन के समय हिजरत करके पाकिस्तान पहुंच गया था। वह भारत में ही होती तो उसकी आवाज को मिलने वाली मुहब्बत से क्या उसकी कला और नहीं निखरती! पाकिस्तान उसकी कला की कद्र कर ही कहां पाया! सुरों में निहित विरह की उसकी संवेदना और फक्कड़पन को सुनते लगता है धरती आसमां को बुला रही है। सोचता हूं, वह भारत में होती तो संगीत में आसमां का मुकाम ही पाती। ‘लम्बी जुदाई...’ से ही वह दिलों में छा गई तो सोचिए दूसरा जो उसने गाया है, उससे रेशमा को क्या पहचान मिलती! और फिर मुल्क की सीमाओं को लांघता रेशमा का खानाबदोश मन रमा तो सदा भारत में ही। सच! रेशमा कहीं नहीं गई है। वह हममें ही बसी है। हवाओं को सुनें, रेशमा आपको गुनगुनाती ही मिलेगी।

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