Friday, March 26, 2010

माध्यम का हूबहू रूपान्तरण

छायाचित्रकारी का दौर जब प्रारंभ नहीं हुआ था, तब कलाकार अपनी कलाकृतियों के जरिए ही यथार्थ का दर्षाव किया करते थे। बाद में जब 1826 में फ्रांसीसी आविष्कर्ता निप्से ने पहला फोटोग्राफ बनाया और 1839 में ब्रिटेन के नागरिक टाल्बो ने छायाचित्रकारी की शोध आम जन के समक्ष रखी तो पूरे विष्व में एक हलचल सी मच गयी थी। पेरिस में चित्रकार-प्राध्यापक पॉल देलारोष ने हताषा और गुस्से में तब घोषणा की थी, ‘आज से चित्रकला मर गयी है।’ चित्रकला का तो इससे कहीं नुकसान नहीं हुआ। हॉं, कुछ स्तरों पर दोनों कलाएं एक दूसरे के प्रभाव से समृद्ध जरूर हुई।


बहरहाल, किसी कलाकृति के लिए छायाचित्र सहयोगी बने तो इसे स्वीकारा जा सकता है परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि कला का रूप एक हो जाए। ऐसा यदि होता है तो फिर कला की अपनी निजता कैसे रहेगी। दूसरी कला से आप विषय ले सकते हैं, फॉर्म का कुछ हिस्सा इस्तेमाल कर सकते हैं परन्तु पूरा का पूरा उसे ही आप यदि अपनाते हैं तो फिर वह कला कहां रहेगी!


पिछले दिनों जवाहर कला केन्द्र की सुरेख कला दीर्घा में जयगढ़, नाहरगढ़, गढ़ गणेष, जन्तर-मन्तर, आमेर दुर्ग आदि की खेतान्ची की पेंटिग देखते हुए लगा कैनवस पर छायाचित्रों को रूपान्तरित कर दिया गया है। उनके तेलचित्रों में कला की मौलिक अभिव्यंजना की बजाय छायाचित्रकारी का ही आस्वाद हर ओर हर छोर नजर आ रहा था। किलों के भीतर के गलियारों के छाया-प्रकाष प्रभाव, उग आयी घास और ऐसे ही बहुतेरे दूसरे दृष्य ऐसे हैं जिनहें अनुभूति चाह कर भी संचित नहीं कर सकती। खेतान्ची ने इन्हें अपनी पेंटिंग में संचित किया है। जाहिर सी बात है, कैमरे का इस्तेमाल उन्होंने अपनी इन पेंटिंग मे अनुकरण की हद तक किया है। सवाल यह है कि क्या इन्हंे फिर कलाकृतियां कहा जाएगा? कलाकार पर दूसरी कला का प्रभाव हो सकता है। अमृता शेरगिल, गुलाम मोहम्मद शेख, विकास भट्टाचार्य, गीव पटेल, भूपेन खक्खर, शांतनु भट्टाचार्य आदि की कलाकृतियों में फोटोग्राफी का प्रभाव जरूर दिखायी देता है परन्तु उन्हें छायाचित्रों का अनुकरण नहीं कहा जा सकता। बहुतेरी बार अचेतन भी ऐसा होता है परन्तु खेतान्ची ने तो पेंटिंग को ही छायाचित्र बना दिया है। हूबहू आप यदि दूसरे माध्यम को अपने माध्यम में रूपान्तरित करते हैं तो फिर इसमें नया क्या हुआ?


बहरहाल, ऐसे दौर में जब कैमरानुमी सक्षम यंत्र बेहद विकसित हो गया है और नंगी आंख से न देख सकने वाले सूक्ष्म से सूक्ष्म दृष्य को भी वह चित्र में परिवर्तित कर देता है, क्या पेंटिग का प्रयोजन भी यही होना चाहिए! पॉल देलारोष फिर से याद आ रहे है, ‘क्या चित्रकला मर गयी है?’

"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ. राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" २६-३-२०१०

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