Friday, March 19, 2010

कलाओं का अन्तर्सम्बन्ध

भारतीय दृष्टि जीवन को उसकी सम्पूर्णता में देखती है, उसमें जीवन के सभी पक्षों को समाहित किया जाता है। जाहिर सी बात है, कला के परिप्रेक्ष्य में उसमे संगीत है, नृत्य है, चित्रकला है और तमाम प्रकार की दूसरी कलाएं भी सम्मिलित हैं। दरअसल सभी कलाएं एक दूसरे से गूंथी हुई हैं। वे एक दूसरे को रूप देने का कार्य करती है। भरत मुनि के नाट्यषास्त्र का नाम भले नाटक से संबद्ध हो परन्तु उसमें सभी कलाओं के अर्न्तसंबंधों की परिणति में हर कला की अपनी स्वायत्ता को दर्षाया गया है। भरत मुनि का एक बेहद खूबसूरत श्लोक है जिसमें उन्होंने संगीत को नाट्य की शय्या कहा है। आर्जेन्टीनी लेखक खोर्खे लुइस बोर्खेस के कथन को इसी परिप्रेक्ष्य में लें जिसमें उन्होंने कहा है कि शब्द का जन्म कविता में हुआ होगा। सच भी क्या यही नहीं है! गान मे छन्द का स्थान केन्द्रीय है। यदि वहां छन्द नहीं बरता गया है तो वह गान का स्वांग भर होगा।संगीत में आलाप के अंतर्गत राग का हल्के हल्के विस्तार होता है। इस विस्तार में ही पूरा एक भाव लोक तैयार होता है। ठीक ऐसे ही रंगमंच के साथ है। वहां किसी पात्र सें संबंधित दृष्य में विस्तार होने के बाद ही अगला दृष्य मंचित होता है। नृत्य में दृष्टि, हाव-भाव आदि की भंगिमाएं ही उसका विस्तार करती है। यही बात चित्रकला के साथ भी है। रंग और रेखाएं बढ़त करती है। इस बढ़त में ही कैनवस पर मूर्त और अमूर्त चित्र की परिणति होती है। हर कला अपने रूप में सौन्दर्य और श्रेष्ठता का वरण दूसरी कला के मेल से ही करती है। सोचिए! यदि नाटक में नृत्य और सगीत नहीं हो, संगीत में चित्रात्मकता के दृष्य उभारने का भाव नहीं हो और चित्रकला में संगीत की लय नहीं हो तो क्या उसे जीवंत कहा जाएगा!
बहरहाल, यह जब लिख रहा हूं, जतिनदास का एक चित्र जेहन में कौंध रहा है। नृत्य की भाव भंगिमाओं में यह चित्र ऐसा है जिसमें कला की सम्पूर्णता को अनुभूत किया जा सकता है। इसमें चित्रात्मकता तो है ही, सांगीतिक आस्वाद है, नाट्य का भ्व है, कविता का छन्द है और कला की तमाम अनुभूतियों भी यहां सघन महसूस की जा सकती है। कहा जा सकता है कि सभी कलाएं एक दूसरे से मिली हुई है। एक दूसरे के बिना उनका काम नहीं चल सकता। संवाद और सहकार के जरिए कलाओं के परस्पर संबंधों को और अधिक सघन किया जा सकता है। अब जबकि बाजारवाद ने लगभग सभी कलाओं को अपनी गिरफ्त में ले लिया है और हर कला अपने आपको श्रेष्ठ साबित करने में लगी है, क्या यह जरूरी नहीं है कि कलाओं के अन्तर्सम्बधों पर विचार करते हम उन्हें एक दूसरे के नजदीक लाए। यदि ऐसा नहीं होता है तो क्या अपनी श्रेष्ठता की होड़ में एक कला का दूसरी कला से संवादहीनता और सहकारहीनता से उनके मूल अस्तित्व से संघर्ष की चुनौती ही क्या हम पैदा नहीं कर रहे?




‘‘डेली न्यूज’’ में प्रति शुक्रवार को प्रकशित डॉ राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ ‘‘कला तट’’ दिनांक 19।3।2010

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