Friday, September 10, 2010

अंतर्मन आस्था में संस्कृति का प्रवाह


कला का रूप और संस्कृति समाज स्वीकृत जीवन दर्शन से बंधे होते हैं। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि हमारी जो संस्कृति है, हमारी जो परम्परा है उससे अलग होकर कलाकृतियों का सृजन संभव नहीं है। यह परम्परा ही है जो पूर्ववर्ती गुणों के साथ नये गुणों को आत्मसात करती जड़त्व को तोड़ती है। इस दृष्टि से परम्परा का पोषण यदि कोई कलाकार करता है और उसे अपने तई समय की संवेदनाओं से साधता है तो उसमें अपूर्व की तमाम संभावनों से इन्कार नहीं किया जा सकता। रागिनी उपाध्याय के चित्रों से रू-ब-रू होते लगता है, परम्परा के अंतर्गत कहानियां, मिथकों, किवदंतियों, पुराण कथाओं को आधार बनाता उसका कलाकर्म कला का सर्वथा नया मुहावरा लिए है। इस नये मुहावरे में गहरे रंगोंे के साथ स्पष्ट आकार, स्वच्छन्द संयोजन और किसी मिथक पर आधारित होने के बावजूदे चित्रों मंे निहित विषय वस्तु की स्वतंत्रता अलग से ध्यान खींचती है। टेक्सचर प्रधान रूपाकारों में नेपाल की कुमारी का अंकन हो या फिर हिन्दू देवी-देवताओं को आधुनिक संदर्भों में कैनवस पर उकेरना या फिर भगवान बुद्ध के जरिए विध्वंश में आश का सूर्य संजोना-रागिनी अनुभूति और अंर्तदृष्टि के पुनर्सृजन में कला की सर्वथा नयी दीठ देती है।

बहरहाल, रागिनी के चित्रों में परम्परा और मिथकों के जरिए अन्तर्मन संवेदना के अनुभवों के विराट भव से रू-ब-रू हुआ जा सकता है। आॅयल पेंटिंग के उसके एक चित्र में औरत के रूप में गाय का अंकन है। इस अंकन में लोकचित्रकला की हमारी परम्परा के जो प्रतीक और बिम्ब आधुनिक संदर्भों में दिए गए हैं, वे अलग से लुभाते हैं। ऐसे ही ‘द पावर’, ‘द पेशेंस’ जैसे बहुतेरे उसके चित्रों के तुलिकाघात सहज, स्वाभाविक तो हैं ही, उनमंे बरते गए रंगों का संयोजन भी उत्तमता से परिकल्पित ऐसा है जिसमें चाक्षुष सौन्दर्य है। आॅयल पेंटिंग के अंतर्गत ‘बर्लिन की दीवार’ ‘डस्ट एंड लव’, ‘गोल्डन चेयर’ जैसे उसके बहुचर्चित चित्रांे में रंग और रेखाओं का गतिशील प्रवाह हैं। इधर रागिनी ने पौराणिक हिन्दू कथाओं को आधार बनाते हुए उसमें आधुनिक परिवेश को उद्घाटित किया है। स्टेच्यु आॅफ लिबर्टी, ताजमहल, एफिल टावर आदि को प्रतीकों में रखते हुए उसने आधुनिक परिवेश और बदल रही धारणाओं की इनके जरिए अपने तई कला व्याख्या की है। अपने कलाकर्म के जरिए वह इतिहास और संस्कृति की यात्रा कराती है। उसके चित्रों में उभरे बिम्ब और प्रतीकों में संस्कृति के अनूठे स्वरों का आस्वाद है। कला की उसकी यही सांस्कृतिक दीठ उसे औरों से जुदा करती है।

"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ. राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 10-09-2010

2 comments:

Murari Gupta said...

bahut khoob.

kala-waak.blogspot.in said...

sukriya!
murari ji, north-east enjoy kar rahe ho?