Friday, September 24, 2010

चित्रकर्म में कविता के अर्थ गवाक्ष

कवि, चित्रकार की मूल ऊर्जा सृजन में ही निहित होती है। हां, आधार सामग्री के अंतर के कारण दोनों ही अलग-अलग रूपों में अभिव्यक्ति पाते हैं। मूल बात उन आत्मपरक संवेदनाओं की है जिनमें रचनाकार हर बार जड़त्व को तोड़ते अपने को ही रचता और गढ़ता है। कविता और कैनवस संबंध जगजाहिर हैं। कभी महादेवी ने ‘यामा’ और ‘दीपशिखा’ जैसे अपने संग्रहों में कविताओं के साथ जो चित्र बनाए वे उनके सृजन का ही एक नया आयाम थे। आज भी चित्रों के साथ उनकी कविताएं पढ़ते लगता है, कविता में रचनाकार दरअसल ध्वनि के अर्थ के जरिए हमें संवेदित करता हैं तो कैनवस पर रंग, आकार और इनके विन्यास के जरिए हमारी आंखों से सम्पूर्ण इन्द्रियों को वह संवेदित करता है।

बहरहाल, पिछले दिनों प्रयास संस्थान एवं राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी ने चूरू में अपने एक आयोजन में पत्रवाचन के लिए जब आमंत्रित किया तो कविता और कैनवस के संबंधो को वहां गहरे से जिया। साहित्यकार मित्र दुलाराम सारण ने राजस्थानी के मूर्धन्य कवि स्व. कन्हैयालाल सेठिया की कविताओं के कैनवस पर रूपान्तरण का प्र्रस्ताव रखा और कलाकार रामकिशन अडिग ने इसे त्वरित मूर्त भी कर दिया। रंगो, रूपाकारों और उनके संपूर्ण विन्यास में सेठियाजी की कविताओ में निहित भावों और विचारों को अडिग ने फलक पर रेखीय प्रतीकों में रखते जैसे साहित्य और कला के अन्तर्सम्बन्धों का भी नव साक्षात्कार कराया। सेठिया जी की कविता ‘सबद’ की पंक्तियां ‘जाबक भोली गोरड़ी@कर सोळे सिणगार...’ को रेखाओं में जीवंत करते अडिग के एक चित्र पर नजर ठहर जाती है। चित्र में स्वयंस्फूर्त सृजनात्मक गत्यात्मकता हर ओर, हर छोर है। ऐसे ही ‘कूंकूं’ कविता की अन्र्तनिहित संवेदनाओं की अर्थ ध्वनियों को कैनवस पर सुनते मन उसे स्वतः ही गुनने को करता है। मैंने अर्थ ध्वनि सुनी और गुन अब भी रहा हूं। दरअसल सेठियाजी की बहुतेरी कविता पंक्तियों में अडिग ने अपने चित्रकर्म से कविता के अर्थ संदर्भों के सर्वथा नये गवाक्ष खोले हैं।

अडिग कैनवस पर सरल, स्पष्ट एवं ज्यामितीय रेखाओं के जरिए सेठियाजी के काव्य को पुनर्नवा करते यह अहसास भी कराते हैं कि चित्रकला रूपार्थ पर निर्भर है जबकि काव्य कला वागर्थ पर। उनके चित्रों में बरती रेखाओं, और रंगों की हल्की परत में मांडणों, समृद्ध जैन चित्र शैलियों में राजस्थान और यहां की रचनाधर्मिता का समग्र परिवेश भी अनायास ही मुखरित हुआ है। अडिग के साथ सेठियाजी की काव्य पंक्तियों पर कुछ चित्र संभावनाशील कलाकार राजेन्द्र प्रसाद ने भी बनाए है, उनमंे भी भावों की अभिव्यंजना काफी हद तक है। मुझे लगता है, सृजन का यही वह स्वाभाविक प्रवाह है जिसमें नया कुछ गढ़ने और रचने की दीठ निहित होती है।

"डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को प्रकाशित डॉ.राजेश   कुमार व्यास का स्तम्भ
"कला तट" दिनांक 24-09-2010

1 comment:

दुलाराम सहारण said...

आंखों की बात को बेहतर ढंग से आपने शब्‍दों में ढाला है।
आंखें देखती है, मन महसूस करता है और दिमाग निर्धारण।
जबकि आपके यहां कलम सर्वोमुखि होती है।
कलम की कारीगरी को सलाम।

आभार।