Friday, November 5, 2010

कला की समग्रता का आलोक पर्व

भारतीय कला दृष्टि, सृष्टि का पुनःस्थापन है। एक प्रकार से सृष्टि का अनुकरण। सृष्टि माने भांत-भांत के रंग। भांत भांत की ऋतुएं। उत्सव और पर्व। इस सब में ही तो है जीवन की समग्रता। कला का परम सौन्दर्य। शायद इसीलिए कवीन्द्र रवीन्द्र ने कभी कहा, ‘सौन्दर्य अभिव्यंजना मात्र नहीं है, वरन् आत्मा में निवास करता है।‘ यह कला ही तो है जो मन को रंजन और उद्बोधन देती है। मुझे लगता है, कला प्रकृति की प्रतिकृति है। नहीं, इससे भी आगे, प्रकृति का बिम्ब प्रतिबिम्ब है। हम सभी उत्सवधर्मी हैं। शायद इसलिए कि कला से हमें अनुराग है। उसमें बसते, सदा कुछ नया रचना चाहते हैं। इस रचे को जीना चाहते हैं।

दीपावली से बड़ा और कौनसा होगा हमारा कला का हमारा पर्व। बाहर और भीतर के आलोक के इस पर्व पर घर-आंगन सज उठते हैं। मन हिलोरें लेता सौन्दर्य की सर्जना को आतुर हो उठता है। लक्ष्मी के स्वागत के बहाने, रंगोली सजती हैं। कुमकुम के उसके पगलिए हम घरों में मंाडते हैं। मुझे याद है, बीकानेर में सीमेंन्ट के आंगन को भी दीपावली पर गोबर से हम सब लीपते। उस पर हिरमच, हल्दी और दूसरे प्रकृति प्रदत्त रंगों से मांडणे मांडते। जहां दीपावली पूजन होता, वहां पर स्वस्तिक ओर षट्कोणीय आकृतियां दीवारों पर बनाते। बाकायदा इनके नीचे ‘लाभ’ और ‘शुभ’ लिखा जाता। पता नहीं कहां से भीतर का कलाकार तब जाग उठता और भांत-भांत की रंगोलियां हम बना डालते। हम ही क्यों, प्रजापति कुम्हार की कला भी दीपावली पर ही तो परवान चढ़ती है। करीने से बनाए सुन्दर दीये। एक से बढ़क एक।

बाजार जाना हुआ तो, इस बार दीपकों की पारम्परिक आकृतियां से अलग दीपक भी इस बार दिखाई दिए। बेहद सुन्दर दीपक। अलंकारिक। लगा, समय के साथ कुम्हार का कलाकार मन भी समाज को पढ़ लेता है। इस पढ़े हुए को ही वह अपने सर्जन में आकार देता है। दिये ही क्यों बहुत सी और मृण आकृतियां भी तो कुम्हार हम लोगों के लिए दीपावली पर बनाता है। दिए रखने वाली छेद करी हंडिया, घंटियां, मिट्टी के मिष्टान पात्र और भी दूसरी बहुतेरी कलात्मक चीजें। इन सबसे ही तो सजती है हम सबकी दीपावली। हमारा घर-आंगन।

यह हमारा कलाकार मन ही तो है जो पारम्परिक प्रजापति कुम्हार के बनाए दीये जतन से घरों में सजाता है। थाली में आंगन के चौक में, घर के बाहर की दिवारों पर, छत की दिवारों और घर के कोने-कोने में हर एक दरवाजे और हर खिड़की के पास दीये रखे जाते हैं। एक साथ जब ये दिये जलते हैं तो मन में भी अनूठा आलोक होता है। दीपकों के झिल-मिल प्रकाश में घर-आंगन में भी हर कोई अनूठी सजावट करता है। लक्ष्मी के स्वागत को तैयार मन प्रतीक रूप में उसके कुमकुम पगलिये मांडता है। कहते है, दीवाली की रात लक्ष्मीजी विष्णु की शेषशय्या त्यागकर अपनी बहन दरिद्रा के साथ भू लोक पर विचरण करती है। जो घर कलात्मक सजा है, स्वच्छ सौन्दर्य का जहां वास है, उसी में लक्ष्मी प्रवेश करती है और जहां गंदगी है, कला नहीं है वहां दरिद्रा चली जाती है। इसी लोक विश्वास के चलते दीपावली का आलोक हर ओर, हर छोर होता है। कला सर्जन के इस पर्व में हर क्षण अपूर्व होता है। जीवन की पूर्णता, समृद्धि, शांति के समस्त सांस्कृतिक भाव इस एक पर्व में ही जो निहित है।

चन्द्रमा की सोलह कलाएं होती है। सोलहवीं कला अमावस्या की अदृश्य कला है। यही अमृता है। अमृता का अर्थ है न समाप्त होना। दीपावली के जगमगाते दीयों का आलोक हरेक मन को भाता है। सौन्दर्य की अद्भुत सृष्टि वहां है, नेत्रों को तृप्ति प्रदान करती हुई। जब हम यह कहते हैं कि दीपकों के प्रकाश से यह जहां आलोकित है तो इस आलोक के निहितार्थ पर भी जाना होगा। आलोक माने प्रकाश। प्रत्यक्ष का भेद। आलोकित दरअसल आकार की सत्ता का बोध कराता है। इसीलिए दीपकों के प्रकाश से आलोकित है जहां। कला दीठ की यही समग्रता है। मन की हमारी कलात्मक संवेदनाओं को ये दीपक ही तो रूपायित करते हैं। इन्हीं में है अंतर के आनंद का रस।

...तो आईए, दीपावली के आलोक में नहाएं। चित्रकला की चित्रोपमता, संगीत के माधुर्य को इस पर्व में अनुभूत करें। यह दीपावली ही है जिसमें कला के लिए अवकाश के क्षण हम निकाल ही लेते हैं, वरना कहां है इस भागमभाग में अवकाश। आईए, सहेजें कला के इन अवकाश के क्षणों को। आज के लिए नहीं। सदा के लिए। इन्हीं में तो है लोक का हमारा आलोक।

डॉ.राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 5-11-2010

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