Friday, November 12, 2010

जड़ होते चिंतन को नई दिशा देता संवाद

आधुनिक कला प्रवृतियां और संस्कृति के व्यापक परिप्रेक्ष्य में कला की परम्परा, विषय वस्तु, माध्यम पर हिन्दी में लगभग सन्नाटा सा पसरा रहता है। पत्र-पत्रिकाओं में कला पर जो कुछ छपता है, बहुधा  उसमें विचार गौण होता है। कला लेखन सर्जन में जो निहित है, उसकी संवेदनाओं की बजाय कलाकार को मिलने वाले सम्मान, पुरस्कार तथा तमाम अन्य घटनाओं पर ही जैसे केन्द्रित होता जा रहा है। ऐसे में ‘अखिलेश एक संवाद’ पुस्तक अंधेरे में जैसे
उजास लिए है। दूरभाष पर कवि, संपादक मित्र पीयूष दईया अपनी पत्रिका के लिए कला पर नया कुछ लिखने का आग्रह करते पूछते हैं, ‘आपको अखिलेश से संवाद की मेरी पुस्तक मिली?’ मैं नहीं कहता हूं तो वे सहर्ष इसे प्रकाशक से भिजवाते हैं। ख्यातनाम चित्रकार अखिलेश से पीयूष के लम्बे साक्षात्कार की इस पुस्तक का घूंट-घूंट  आस्वाद करते लगता है, हिन्दी में भारतीय कला को जैसे गहरे से जिया हूं।
पीयूष ने इसमें कला के आज और आने वाले कल के साथ ही परम्परा के सूत्र व्यापक रूप में संजोए हैं। ऐसा करते यह किताब कोरा संवाद भर नहीं रह गयी है बल्कि अपने आप में एक स्वतंत्र सृजन बन गयी है। पुस्तक में अखिलेश एक जगह कहते हैं, ‘चित्रकला में महत्वपूर्ण अवकाश है, समय नहीं। आप समय का चित्रांकन नही कर रहे होते हैं बल्कि आप अवकाश को रच रहे होते हैं।...’ वह जब यह कहते हैं तो कला में निहित किसी कलाकार की अन्तर्मन संवेदनाओं को, कला की उसमी जमीन को गहरे से समझा जा सकता है। उस जमीन को जिसमें अखिलेश मनुष्यता के सभ्यतर होने में सभी कलाओं का वास भी अनायास ही ढूंढ लेते हैं।
लियोनार्दो के ‘द लास्ट सपर’, पिकासो के ‘गुएर्निका’, वॉन गॉग के व्यक्तिचित्र, हुसैन के ‘जमीन’, डेमियन हस्र्ट की ‘फॉर द गॉड ऑफ  लव’ की प्रसंगवश चर्चा करते अखिलेश भारतीय और पाश्चात्य कला के परिप्रेक्ष्य के समझ की दृष्टि भी पाठक को अनायास देते हैं। पीयूष इस संवाद में कला के अनंत आकाश की बारीकियों से रू-ब-रू कराते पाठक को एक कलाकार के मन को पढ़ने का अवसर देते हैं।
दरअसल हमारे यहां कला और उसके अन्र्तसंबंधों को प्रायः गंभीरता से लिया ही नहीं गया है। कला और कलाकार के मध्य संवाद तो प्रायः नहीं के बराबर है। ऐसे में पीयूष ने अखिलेश के बहाने कलाकार के सर्जन में निहित उसकी समझ से जुड़े तमाम मुद्दों को एक प्रकार से रोशनी दी है। इस रोशनी में सृजन में निहित संवेदनाओं, रचनाशीलता के दूसरे सरोकारों के साथ रचना का समग्र परिप्रेक्ष्य उद्घाटित हुआ है। जड़ होते चिंतन को नई दिशा देते।
बहरहाल, मुझे लगता है संस्कृतिबोध, सौन्दर्यदृष्टि और कला से जुड़े अपने सरोकारों के कारण ही पीयूष अखिलेश के कलाकर्म और उसमें निहित उनकी सोच की सिराओं को गहरे से पकड़ पाए हैं। अपनी जिज्ञासाओं में उन्होंने एक तरह से अखिलेश के कलाकर्म का मंथन ही नहीं किया है बल्कि कला की प्रासंगिकता और परम्पराओं से भी सहज संवाद किया है।
महत्वपूर्ण यह भी है कि अखिलेश से संवाद में कला के चिंतन सूत्रों में वह बहुत से स्तरों पर कलाकार की कला से ‘बाहर’ भी गए हैं। इसी से यह पुस्तक कला आलोचना की एक जरूरी आधारभूमि भी निर्मित करती है।  पीयूष ने इसमें कला की अछूती संभावनाओं को गहरे से छुआ ही नहीं है बल्कि कलाकार के मर्म को गहरे से अपने तई जिया भी है। ऐसे दौर में जब कला लेखन सिद्धान्तों की पड़ताल और अकादमिक निष्कर्षों तक ही सीमित होकर रह गया है, पीयूष की यह पुस्तक हिन्दी में कला विमर्श का नया आकाश निर्मित करती है। अशोक वाजपेयी ठीक ही कहते हैं, ‘भारतीय कला के व्यापक क्षेत्र में, और हिन्दी मंे तो बहुत कम ऐसा हुआ है कि कोई कलाकार अपनी कला, संसार की कला, परम्परा और आधुनिकता आदि पर विस्तार से, स्पष्टता से, गरमाहट और उत्तेजना से बात करे और उसे ऐसी सुघरता से दर्ज किया जाये।’

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