Friday, November 26, 2010

कैनवस पर अनुभतियों का अर्थोन्मेष

चित्रकला रूपार्थ पर निर्भर है जबकि काव्य कला वागर्थ पर। कला में रंग, आकार तथा इनके विन्यास हमारी आंखों के जरिए हमारी संपूर्ण इन्द्रियों को संवेदित करते हैं। यहां यह सब इसलिए कि काव्य संवेदना रखने वाला जब कैनवस पर रंगो और रेखाओं से दर्शकों का नाता कराता है तो उसमें अर्थ संदर्भों के नए गवाक्ष अनायास ही खुलते दिखायी देते हैं। तेजी ग्रोवर मूलतः कवयित्री हैं परन्तु पिछले दिनों जवाहर कला केन्द्र में लगी चित्रों की उनकी प्रदर्शनी को देखते लगा, कैनवस पर वह प्रकृति के स्वरूप, दृश्यों को सर्वथा नयी दीठ से रूपायित करती है। उनके चित्र बिम्बो में समय की संवेदना और प्रकृति की बहुतेरी भंगिमाएं कला का अनूठा सौन्दर्य रचती है। ऐसा नहीं है उनके सारे चित्र प्रकृति केन्द्रित ही है, उनमें रोजमर्रा की जीवनानुभूतियां भी है परन्तु एक बात सबमें समान है और वह है उनका सांगीतिक आस्वाद। कैनवस पर उनकी कला से साक्षात् होते औचक स्वयं उनकी ही लिखी कविता की पंक्तियां जेहन में कौंधने लगती है, ‘वे बिम्ब ही थे@जिनसे और बिम्ब उपजते थे@कुछ और मिट जाते थे@उनसे निकलना@उनकी अति के बाद ही संभव होता@उनका तिरस्कार@उन्हें रचने की सामथ्र्य से@रचने की सामथ्र्य को रचते भी बिम्ब थे@मिटाते भी थे....।’

तेजी के चित्रों में ऐसे ही बिम्बों की भरमार है, प्रतीक हैं और यह ऐसे हैं जिनसे बाहर निकलना आसान नहीं है। ऐसा ही उनका एक चित्र है जिसमें भगवा, पीली, हरी, सफेद रंगों की आकृतियां है। रंगों का संयोजन ऐसा कि उसमें अध्यात्म की गहराईयो ंको गहरे से अनुभूत किया जा सकता है। यूं देखने पर चित्र पत्तियों का कोलाज भर दिखायी देता है परन्तु जैसे-जैसे उस पर गौर किया जाता है, वहां रंगों का अनूठा आलोक बिखरा दिखायी देता है। इस आलोक में शांत बहती नदी है, मंद बहती पवन है और है प्रकृति की गुनगुनाहट भी। ऐसे ही दूसरा एक चित्र है जिसमें पत्तियां का रंग हरा, मटमैला सा है। जीवन की आस-निराश के साथ तमाम विविधताओं को इनमें अनुभूत किया जा सकता है। मुझे लगता है, तेजी बिम्बों में लय का सर्वथा नया मुहावरा रचती है।

मुझे लगता है, तेजी सृष्टि में व्याप्त सौन्दर्य को अखंड और वृहद रूप में देखती है। शायद यही कारण है कि उनके चित्रों में प्रतिकात्मक लाल में भी हरापन है। हरेपन में पीलापन। काले में सफेद और ऐसे ही एक रंग में उसके विपरीत का अनुठा मिश्रण। जीवन दर्शन की लय जैसे कैनवस पर गहरे से गुनगुनाई गयी है। उनके चित्र दरअसल समकालीन कला परिदृश्य में एक जरूरी हस्तक्षेप करते हैं। वे ऐसे अर्थ के अनुसंधान की ओर भी ले जाते हैं जिनमें भारतीय संस्कृति, हमारे संस्कार और पूर्वजों के प्रति श्रद्धा के बहुतेरे भाव भी निहित हैं। होने और न होने के बीच के स्पेस में अन्तर्मन संवेदनाओं को कैनवस पर स्वर देती तेजी जीवन, समाज और प्रकृति से घुल-मिलकर अपनी गहन अनुभूतियों को ही जैसे कैनवस पर अनुप्राणित करती है।

तेजी के चित्रों में रंग, रेखाएं, टैक्सचर और स्थापत्य मिलकर रूपकों की जो निर्मिती करते हैं, उनमें रंगों के भी अनूठे बिम्ब है। एक्रेलिक, आॅयल के साथ ही तेजी के बरते रंगों की खास बात स्वयं उसके द्वारा सृजित रंग भी है। मसलन उसने अपने चित्रों में हल्दी, अनार के रस, फूलों, पत्तियों को घोलकर बनाए रंग भी बहुतायत से प्रयुक्त किए हैं। ऐसे में चित्रों में निहित विषय रंगों के उसके संयोजन, स्वयं उसकी विचारधारा और प्रकृति से उनके जुड़ाव को भी सहज संप्रेषित करते हैं। तेजी के चित्रों में लोक चित्रो की सौरभ है तो बहुत से चित्रों में प्रयुक्त अलंकरण, फूल-पत्तियां समकालीन बोध की भी विशिष्ट अर्थ छवियां लिए है। रंग और रेखाओं का यही तो गतिशील प्रवाह हैं और कला की सांस्कृतिक दीठ भी।

कभी निर्मल वर्मा ने कहा था, ‘कलाकृति से एक अर्थ निकालना-अथवा उसमें अपने विश्वासों का सबूत ढूंढना-दोनों ही बातें झूठी नैतिकता को जन्म देती है। कला की नैतिकता इसमें नहीं है कि वह हमारे संस्कारों या विश्वासों का समर्थन करे,...कला सिखाती नहीं, सिर्फ जगाती है, क्योंकि उसके पास ‘परम सत्य’ की ऐसी कोई कसौटी नहीं, जिसके आधार पर वह गलत और सही, नैतिक और अनैतिक के बीच भेद करने का दावा कर सके।’ मैं इसमें यह और जोड़ देता हूं, ‘कला सत्य या यथार्थ नहीं है, वह सत्य या यथार्थ की खोज की एक प्रकार से प्रस्तावना है।’ तेजी के चित्रों की इस प्रसतावना में निहित संवेदना ही कला का क्या परम सौन्दर्य नहीं है! आप ही बताइये।
राजस्थान पत्रिका समूह के "डेली न्यूज़" में प्रति शुक्रवार को एडिट पेज पर प्रकाशित डॉ.राजेश कुमार व्यास का स्तम्भ "कला तट" दिनांक 26-11-2010


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