Monday, March 5, 2012

दृश्य संवेदना के अनुभव का भव


छाया कला यानी दृश्य संवेदना में अनुभव का भव। प्रकाश की कला सर्जना। प्रकाश गति पथ पर कोई भी दूसरा पदार्थ अवरोधक बनता है तो पीछे एक छाया की सृष्टि होती है। कैमरे में छाया की इस सृष्टि से ही दृश्य का अंकन होता है। कैमरेनुमा इस यंत्र की सहायता से यदि दिख रहे दृश्य में निहित संवेदना, अंतर्मन अनुभव के भव को उकेरा जाये तो वह छाया कला ही तो कही जाएगी। छायाकला माने संवेदना से उपजी सर्जना। ऐसी सर्जना जिसेमें दृश्य मंे निहित बाहरी ही नहीं बल्कि आंतरिक सौन्दर्य की भी दीठ निहित है। कहें, कैमरे की आंख से वह सौन्दर्य भी अनावृत होता है जिसे न तो शब्दो में व्यक्त किया जा सकता है और न ही वस्तुगत दृष्टि से उसे जाना जा सकता है।
बहरहाल, कुछ समय पहले मालवीय राष्ट्रीय तकनीकी संस्थान के क्रिएटिव आर्ट्स सोसायटी फोटोग्राफी क्लब द्वारा आयोजित छाया कला प्रदर्शनी ‘मोमेन्ट्स 2012’ का आस्वाद करते सहज ही यह सब अनुभूत किया। लगा, यह छायाकला ही है जिसमें सामान्यतया दिख रही वस्तु, विषय के साथ ही वह तमाम भी अनायास उभर आता है, जिसे नंगी आंख चाहकर भी नहीं देख पाती। स्मृति के गलियारे में छाया कला कृतियां काैंध रही है। एक छायाचित्र है जिसमें जारनुमा एक्वेरियम में तैरती मछली के आस-पास के निर्जिव हंसते बुद्ध, महाराजा और गुलदस्ते की जीवंतता का सांगोपांग चितराम है। दूसरे में जूतों के पार्श्व में मंजिलों की गहराई है। छायाचित्र और भी हैं जिनमें जंतर-मंतर में थकित पथिकों का धूप विश्राम है तो चौथे में पत्तियों से झांकती गिलहरियां, मछली को मुंह में दबा उड़ती क्रेन, सूखे डंडेनुमा डाली पर बैठी चिड़िया और इमारत से झांकता अतीत जैसे हमसे संवाद कर रहा है। किसी में अंधेरे में उभरती मानवाकृति, फूटपाथ पर खड़े को निहारती साईकिल सवार और उसकी गति, पेड़ की छाया में जीवन के अविराम का मोहक अंकन तो किसी में तारों पर चलता बंदर औचक ठहर कर कुछ सोचने को विवश करता है। दृश्य संवेदना लिए चित्र और हैं। मुझे लगता है, प्रकाश-अंधकार के बिम्ब प्रतिबिम्बों के साथ यह विद्यार्थियों का संवेदनशील कला मन ही तो है जिससे अनुभव का ऐसा खूबसूरत भव निर्मित हुआ है। रूपों की मौन मुखराभिव्यक्ति। सौन्दर्यपरक लय-छन्द मंे आविष्ट छायाचित्र। सोचता हूं, देखना महत्वपूर्ण है परन्तु उससे भी अधिक महत्वपूर्ण देखने की हमारी सोच है। यह वह सोच ही तो है जिसमें रंगों, रूप के भिन्न सरोकार हमें रस से सराबोर करते हैं।
फोटोग्राफी क्लब के सलाहकार और छायाकार मित्र महेश स्वामी के साथ एक-एक चित्र की बारीकी मंे जाते विद्यार्थियांे के छाया कला मन की संवेदना को गहरे से जिया। महेश छाया चित्रकारी में रूचि रखने वाले विद्यार्थियों को उत्तरोतर आगे बढ़ाने, उनमें निहित कला संवेदना को जगा उसे मंच प्रदान करने के अनथक प्रयास निरंतर करता रहा है। यह उसका संवेदनशील मन ही है जिसमें उत्सवधर्मिता के साथ अपने नहीं दूसरों के छायाचित्रों के प्रति भी अपार प्यार है। छाया कला के उसके यही तो वह सरोकार हैं जो उसे ओरांे से जुदा करते हैं।
बहरहाल, मुझे लगता है, यह छाया कला ही है जिसमें प्रकृति प्रदत्त चीजों को ज्यों का त्यों प्रस्तुत ही नहीं किया जाता बल्कि प्रकृति के प्रस्तुत गुणों में से उकेरे जाने वाली विषय-वस्तु की एक प्रकार से अन्विति की जाती है। विषय में निहित आंतरिक सौन्दर्य, सौन्दर्य के किसी अंश को अनुभूत करते कैमरे की तीसरी आंख से उसे परोटा जाता है। कैमरेनुमा यंत्र की तकनीक यहां मदद जरूर करती है परन्तु यदि छायाकार में विषय-वस्तु के प्रति अतिरिक्त सजगता, क्षण में परिवर्तित घटना की गति को पकड़ने की सामर्थ्य नहीं है तो वह केवल फोटोग्राफी ही होगी छायाकला नहीं। प्रकृति और चीजों को उसके सर्वोत्तम रूप में पकड़ भीतर के अपने कलाकार से उसे जीवंत ही तो करता है छायाकार। तकनीक इसमें साधन हो सकती है साध्य नहीं। सर्जना में क्षण आस्वाद के अनुभव की समग्रता को जीते इसीलिये छायाकार जो अभिव्यक्ति करता उसे शब्दों मंे चाहकर भी कहां व्यक्त किया जा सकता है! इसीलिये तो कहा गया है एक चित्र हजारों हजार शब्दों से भी कहीं अधिक मुखर होता है।

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