Friday, March 23, 2012

सभ्यता और संस्कृति का कला नाद

सामाजिक अनुपयोगिता की अनुभूति के विरूद्ध अपने को प्रमाणित करने का प्रयत्न कहीं है तो वह कला में है। यह कलाएं ही है जो भीतर के हमारे सौन्दर्यबोध को जगाती हैं। संपूर्ण अर्थ में कला कैनवस का अंकन, मूर्तिशिल्प, नृत्य, नाट्य भर ही तो नहीं है। अंतर्मन संवेदना का उत्स कला है। आनंदानुभूति भी उसी का एक हेतु है। रेखाओं द्वारा, वाणी द्वारा, मूर्ति गढ़न में और ताल में कला की उपयोगिता का आधार यह हमारा सौन्दर्यबोध ही है। इसीलिये लोक संस्कृति, परम्पराओं, रहन-सहन और स्थान विशेष के वास्तु, स्थापत्य में हर ओर, हर छोर कलाओं का ही बोलबाला है।
मुझे लगता है, यह कला और कलाकार ही हैं जो सार्वजनिक स्तर पर बड़े पैमाने पर काल को नियोजित करते हैं। कलाओं में ही काल, समय का नाद निहित है। अजंता की गुफाओं में, खजूराहो, कोर्णार्क की दिवारों पर अंकित मिथुन मूर्तियों में, सांची के स्तूप में, अशोक कालीन स्तम्भों में और दूसरी तमाम हमारी मूर्तिकला, स्थापत्यकला में स्थान, विशेष के साथ युगीन सभ्यता और संस्कृति ही तो प्रतिबिम्बित होती है। युगीन सोच की संवाहक हमारी कलाकृतियों, वास्तु और शिल्प ही है। यही क्यों, समाधियां, स्मारकों में भी हमारे पूर्वजांे की संलिप्तता एक खास अंदाज में दिखाई देती है।
यह जब लिख रहा हूं, कला दीठ के यायावरी दृश्य आंखों के सामने घूमने लगे हैं। अभी बहुत समय नहीं हुआ, छत्तीसगढ़ जाना हुआ था। खैरागढ़ स्थित देश के एक मात्र इन्दिरा संगीत कला विश्वविद्यालय में व्याख्यान देने। कला संकाय के डीन मित्र महेश चन्द्र शर्मा के सौजन्य से वहां से अस्सी किलोमीटर दूर छत्तीसगढ़ के खजूराहो कहे जाने वाले शिव धाम भोरमदेव भी जाना हुआ। गाड़ी स्वयं ही ड्राइव कर रहा था सो रास्ते पर खास ध्यान था। भोरमदेव छत्तीसगढ़ के कबीरधाम जिले में स्थित है। रास्ते भर आदिवासी संस्कृति से साक्षात् होते मैनें पाया सड़क किनारे छपरेल के घरों में खास अंदाज में लोक चितराम अंकित हैं। सिंदुरी रंग से स्थानीय लोगों का गहरे से जैसे नाता है। वहां पहुंचा तो सिंदुरी रंग से सजा भोरमदेव मंदिर का संकेत चिन्ह ळभी अलग से दिखा। पांच फूट ऊंचे चबूतरे पर बना शिव का अद्भुत शिल्प, स्थापत्य धाम। गोड राजाओं के देवता भोरमदेव माने शिव। कलात्मक सौन्दर्य से सराबोर। मंदिर की बाहरी दिवारों पर बारीकी से अंकित नृत्यांगनाएं, मिथुन मूर्तियों का भव। वहां से लौट आया परन्तु अभी भी खैरागढ़ जेहन में है। वहां के वास्तु, शिल्प और तमाम दूसरे निर्माण कार्यों ने जो सौन्दर्यबोध दिया, उसी में रमा हूं। मुझे लगता है, कला के यही तो वह युगीन सरोकार हैं जिनसे हम चाह कर भी जुदा नहीं हो सकते।
बहरहाल, ऐसी ही अनुभूति भुवनेश्वर में भी हुई। दो भागों मंे बंटा भुवनेश्वर का एक भाग आधुनिकता से तो दूसरा पूरी तरह से प्राचीन संस्कृति को अपने में सामाहित किये है। लिंगराज मंदिर जाएंगे तो इस संस्कृति से साक्षात् होगा। बिन्दु सागर झील के आस-पास का परिवेश बीते समय और कला के अद्भुत सौन्दर्य का आस्वाद कराता है। खंडहर होते हुए भी पाषाण मंदिरों का शिल्प वैभव वहां जैसे आपसे संवाद करता है। वहां ही क्यों आप किसी भी धरोहर संपन्न नगर, स्थान पर जाएं आपको ऐसा ही अहसास होगा। छतों के कंगूरें, चोरौहों पर स्थापित मूर्तिशिल्प को लें। पार्क में रखी कोई पुराने ढंग की बैंच, महल, मंदिर परिसर में लगे फव्वारें झाड़फानुशों को देखें। रोड साईटों पर लगाये गये पिल्लरों, उनमें बंधी लोहे की सांकलों को लें। शहर की संस्कृति, वहां की कला से आपका सीधे साक्षात् होगा। विश्व के एम मात्र सुनियोजित बसे शहर गुलाबी नगरी जयपुर को ही लें। चौपड़, एकरस बनी दुकानें, गुलाबी रंग और यहा का वास्तु-सभी में सुव्यवस्थित बसावट की धरोहर प्रतिबिम्बित होगी। और नही ंतो कस्बाई संस्कृति को अभी भी जीते शहर बीकानेर को ही लें। वहां की तंग गलियां, हवेलियां, चौक मोहल्लों में बिछे तख्त माने पाटों की संस्कृति अपनापे को अपने आप ही बंया कर देती है। किसी शहर का कलात्मक सौन्दर्यबोध क्या यही नहीं है!

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