Friday, July 20, 2012

कला का सिनेमाई रूपान्तरण


विद्यासागर उपाध्याय के रंग कोलाज 

विद्यासागर उपाध्याय रंगों के उत्सवधर्मी कलाकार हैं। कैनवस पर वह जो बनाते हैं, उनमें सीधे सपाट दृष्य नहीं मिलेंगे। मिलेंगे तो बिम्ब कोलाज। संकेतों में रंगों का अद्भुत रचाव। आरंभ के उनके रेखांकन और बाद के चित्रफलक पर विचारता हूं तो अनुभूत होता है कि उनकी कलाकृतियों में एक अजीब सी व्याकुलता रंगों के सांगीतिक आस्वाद के साथ देखने वाले में सदा ही जिज्ञासा जगाती रही है। कहें, अपने दौर से अलग कुछ करने के उनके कला चिंतन से उपजी कलाकृतियां रंगों का मनभावन रूपान्तरण है। भले अमूर्तन की उनकी रंग दृष्टि समकालीनता का अतिक्रमण करती रही है परन्तु संप्रेषण के नये आयामों में उसका आस्वाद लुभाता भी है। उनके रंग लोक में तैरती अनुभूतियों, स्मृतियां भीतर के हमारे रितेपन को जैसे भरती भी है।
बहरहाल, कुछ दिन पहले उपाध्याय के रंग सरोकारों पर ‘कलानेरी’ आर्ट गैलरी ने विनोद भारद्वाज और रोहित सूरी निर्मित फिल्म ‘कलर सिम्फनी’ के प्रदर्षन की पहल की। फिल्म के शीर्षक को देखकर जिज्ञासा हुई सो देखने जाना ही था परन्तु फिल्म देखकर निराषा हुई। इसलिये कि विद्यासागर उपाध्याय की कला में रंगों का अद्भुत रचाव है। रंगों के उनके सरोकार भी किस एक मुकाम की बजाय निरंतर बदलते रहे हैं। बंधी-बंधायी लीक की बजाय वहा समय का अपनापा हैं। माने वहां परम्परा भी है तो आधुनिकता के गहन सरोकार भी। चटख रंगों में झिलमिलाते उनके रंग कैनवस का पारदर्षीपन भी अलग से ध्यान खींचता है। बल्कि मुझे तो उनकी रंगधर्मिता में चलचित्रनुमा जो एप्रोच है, वह भी सदा से आकर्षित करती रही है। लगता है, उनके कैनवस का अर्मूतन पानी में तैरता है। उसमें गत्यात्मक प्रवाह जो है। कैनवस स्थिर है परन्तु रंग दृष्यों का चलायमान भाव वहां है। कलाकृतियां देखते हुए लगेगा कैनवस नहीं किसी फिल्म को हम देख रहे हैं। और इस पर सच में यदि फिल्म बने तो उसमें कुछ खास की गुजांईष तो रहती ही है परन्तु ‘कलर सिम्फनी’ से वह ‘खास’ गायब है। शायद इसलिये भी कि फिल्म अभिकल्पन में तात्कालिकता की प्रबलता है। लगता है, कुछेक पंेटिंग के इर्दगिर्द ही फिल्म का ताना-बाना बुन, दृष्य शूट कर लिये गये और बगैर किसी सोच, शोध के उन दृष्यों को रख दिया गया है। 
पूरी फिल्म में विद्यासागर उपाध्याय की कलाकृतियों के रंग सरोकारों की शास्त्रीयता को विनोद कहीं भी पकड़ नहीं पाये। इसीलिये फिल्म देखते समय जो अधुरेपन की शुरूआत होती है, वही इसके समाप्त होने के बाद भी बनी रहती है। कलाकार की बजाय कुछेक कलाकृतियों का चलचित्र बनकर रह गयी है,  बीस मिनट की यह पूरी फिल्म। आरंभ में कैनवस पर कलाकृति रचते, रंग बिखेरते कलाकार के कुछेक शाॅट इसमें है, अंतराल पश्चात चुनिन्दा कलाकृतियां पर कैमरा फोकस होता है। बीच में स्क्रिन पर उपाध्याय के जन्म और कलाधर्मिता पर कुछेक पंक्तियां उभरती है और फिर से पहले जो कलाकृतियां दिखाई गयी थी, उन्हीं पर कैमरा फोकस होता है। उनके स्टूडियों के पुराने दरवाजे की सांकल के पास खुद उनके खड़े होने के शाॅट की मुग्धता में कलाकार की कला यहां जैसे गौण हो गयी है। 
बहरहाल, सिनेमा चलायमान दृष्यों की विधा है और कैमरा उसकी भाषा है। यह इतनी शसक्त है कि थोड़े में भी बहुत कुछ कहा जा सकता है, बषर्ते कि आप उसमें रमें, उसे जियें। इस दीठ से ‘कलर सिम्फनी’ लगता है पूरी तरह से चूक गयी है। हाॅं, विद्यासागर उपाध्याय की कलाकृतियों के दृष्यों के पाष्र्व मंे राग बिहाग में पंडित विद्याधर व्यास का शास्त्रीयगान जरूर रंगों की उत्सवधर्मिता को बंया करता कुछ सुकून देता है।  

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