Saturday, July 28, 2012

रेखाओं में गूंथे जीवन बिम्ब

नई दिल्ली की गैलरी आर्ट शास्त्र ने कुछ समय पहले हिम्मतषाह के रेखांकनों की एक प्रदर्षनी का आयोजन किया था। प्रदर्शनी का शीर्षक रखा गया, ‘अवलोकिता’। झेन दर्षन में बुद्ध के एक नाम से अभिहित करते उनकी ड्राइंग का अंतरंग वहां था। प्रदर्शनी में प्रदर्शित चित्रों का आस्वाद करते मुझे लगा, यह हिम्मत शाह  ही हैं जो रेखांकनों में वस्तुओं और जीवों के सादृष्य का विचार किए बगैर शुद्ध आत्मिक अभिव्यक्ति करते है। भले इसे किसी दर्शन से जोड़ दिया गया हो परन्तु मूलतः वहां कोई विचार या दर्षन का आग्रह नहीं होकर रूपांकन की सहज स्फूर्त क्रियाषीलता है। 
वैसे भी कलाकृतियां अनुभूतियों से ही तो जुड़ी होती है। देखने की भी और उसे रचने की भी। किसी एक अर्थ से जोड़कर उन्हें चाहकर भी कहां व्याख्यायित किया जा सकतो है! यह इसलिए है कि बहुत सी दूसरी संभावनाएं वहां बार-बार जग रही होती है। कोई उसके बारे में कहे कि वह कैसी है तो शायद ठीक वैसे ही उसे व्यक्त किया ही नहीं जा सकता। वह उसी को होती है जो अनुभूत करता है।
बहरहाल, हिम्मत शाह के शिल्प पर तो बहुत कुछ लिखा गया है परन्तु न जाने क्यों उनके  रेखांकनों पर आलोचकों का ध्यान खास गया ही नही। मुझे लगता है, देश के वह उन विरले कलाकारों मंे से हैं जो अपने तई विचार संपन्न आकृतियों का सर्जन करते रेखाओं की अलौकिक सामर्थ्यता की अनुभूति कराते हैं। भले उनके रेखांकनों में स्वयं उनके बनाए स्कल्पचर देखे जाने का अहसास भी है वहां टैक्सचर की तमाम संभावनाएं भी हैं। उनके रेखांकन ऐसे भव में हमे ले जाते हैं जहां मानवाकृतियां जीव-जंतुआंे की प्रकृति में समाहित होती प्रतीत होती है तो बहुतेरी बार विभिन्न जीव-जंतुओं की मूल प्रकृति मानव आकृतियों में समाहित होती दृष्य का सर्वथा नया बोध कराती हैै। व्यक्ति के भीतर चल रहे द्वन्द, उससे संबद्ध तमाम विसंगतियां, आधुनिकता के बनावटीपन और यांत्रिकता में जकड़ते जा रहे विचारों के केन्द्र में हिम्मत शाह कला की जो दुनिया रचते हैं, उसमें भावपूर्ण रूपांकन यत्र-तत्र-सर्वत्र है। मसलन जापानीज इंक ऑन पेपर को ही लें। वहां रूप की स्पष्टता तो है परन्तु विचारों का सघन जंगल है। रेखाओं का अनूठा उजास है तो रेखांकनों में खंड-खंड रचित कोलाज में विस्मय के साथ गति का अनूठा प्रवाह है। लाईनों से उभारे टेढे-मेढे चार पैरों के साथ ऊपर उभरती ऊंट, घोड़े जैसी आकृतियों में पीछे पूंछ की बजाय दिखाई देते व्यक्ति के जरिए वह जैसे भीतर की अपनी संवेदनाओं का सब कुछ बाहर निकाल देना चाहते हैं। 
ऐसी ही ड्राइंग की उनकी एक आकृति में रेखाओं, रेखाओ के गोलों, बिन्दुओं के जरिए रोबोटनुमा आकृति का सर्जन किया गया है। एक दूसरे से गुत्थम-गुत्था होती ऐसी आकृति में आकृति के भीतर से निकलती और आकृतियां मनुष्य की जटिलता, यांत्रिकता के बंधनों के साथ ही सभ्यता से उपजे तमाम विषादों को भी जैसे हमारे सामने रखती है। इसे देखते लगता है, हिम्मत शाह किसी एक आकृति में भी विचार की तमाम संभावनाओं को गहरे से जताने का सामर्थ्य रखते हैं। 
मुझे लगता है यह हिम्मतषाह ही हैं जिनकी ड्राइंग देखने का पूरा एक वातावरण निर्मित करती है। इस वातावरण के अंतर्गत देखे हुए दृष्यों की बहुत सारी  स्मृतियां औचक कौंधती है। इसीलिये उनकी ड्राइंग में बहुतेरी बार जॅक्सन पोलाक के बनाये चित्रों के व्यापक प्रभाव चित्रण की तरह वस्तुनिरपेक्षता और व्याकुलता का आभाष भी होता है तो रेखाओ में गंूथी शारीरिक बल्ष्ठिता से माइकिलेन्जलो का प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है। उनके चित्रों को देखते हुए दर्षक स्वयं को अनोखे वातावरण में परिवेष्टित अनुभव करता है और इसी से कलाकृति को चित्रकार की दृष्टि से नहीं बल्कि दर्षकीय दीठ से नया अर्थ अनायास ही मिल जाता है। 


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