Friday, July 6, 2012

सौन्दर्य के कला देव शिव


शिव सौन्दर्य के कला देव हैं। मन के सौन्दर्य देवता। सौन्दर्य वह नहीं है, जिसके हम आदि हैं। सौन्दर्य वह जिसमें मन रमता है। कलात्मक सौन्दर्य। सोचता हूं, अकेले शिव ही ऐसे देवता हैं जो नंग-धड़ंग पूजे जाते हैं। और कुछ नही ंतो लंगोटी की जगह चमड़े का टुकड़ा ही लपेट लिया। गहनों के नाम पर गले में सांप धारण कर लिया। चिता की राख लपेटे भी वह हमें लुभाते हैं। आप खुद ही सोचिए! उनकी सवारी भी कोई और नहीं सांड है। आप-हम उसके पास जाते हुए भी डरें।
 भंग-धतुरा उनका भोजन है। कंठ में विष की भंयकर ज्वालाएं। भूतभावन। समुद्र मंथन में जब हलाहल निकला तो उसे कौन पिए। भोले भंडारी को ही आगे किया गया। कहा गया, आप ही हैं महादेव। अब पिएं यह हलाहल। शिव बोले, हां महादेव तो मैं ही हूं। दूषण हलाहल उनके कंठ में पहुंच भूषण बन गया। नीलकंठ। वाह रे कला देव! गंगा के प्रचण्ड वेग को कौन धारण करें। यहां भी शिव आगे। कर लिया अपनी जटाओं में उसे धारण। कलंकी चन्द्रमा किसके पास जाए! शिव ने उसे भी अपने सर पर स्थान दिया।...तो दूषण सारे शिव के पास पहुंच भूषण हो गये। इसी से तो है शिव का सौन्दर्य। कला का अद्भुत रूप! शिव लिंग जहां है वहां शिव की मूर्ति कहां है! माने वह मूर्त भी है और अमूर्त भी। जिस भी भेष में, रूप मंे हम दर्शन करना चाहें, प्रकट हो वह दर्शन दे देंगे। प्रसीद प्रसीद प्रभो पूर्ण रूप! आशुतोष जो हैं इसलिये प्रसन्न तो होंगे ही। 
श्रावण मास को ही लें। इस मास में शिव से संबंधित किसी भी लीला का वर्णन शास्त्र-पुराणों में नहीं है पर शिव को यही मास प्रिय है। हिमाचल की पुत्री के रूप में जब सती फिर से जन्मी तो श्रावण मास में ही शिव की विधिवत् पूजा-अर्चना की। शिव प्रसन्न हो पुनः पति रूप में उन्हें प्राप्त हो गये। फिर क्या था। श्रावण शिव का प्रिय मास हो गया। श्रावण में ही होती है, शिव भक्तों द्वारा कांवड़ की कला यात्रा। शिव के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन यात्रा। हरिद्वार के रास्ते भर में कंधे पर रंग-बिरंगे कांवड़ उठाकर पैदल जाते भक्त दिखेंगे। अकेले या समूह में। रंगीन कागजों से, मोम से, चमचमाते पोलिथिन से। मोर पंखों से कलात्मक सजे कांवड़। देखेंगे तो लगेगा रंग कोलाज हैं भांत भांत के कावड़। गंगाजल भरे ये पवित्र कांवड़ जमीन पर नहीं रखे जाते। कांवड़िये विश्राम करते हैं तो सड़क के किनारे पेड़ों की शाखाओं से बने तख्तों पर इन्हें रखा जाता है। 
बहरहाल, शिव का रूद्रावतार कला का पर्याय है। संगीत कला का पर्याय। कहते है। इसी अवतार में उन्होंने कभी नारद को संगीत कला का ज्ञान दिया था। नारद ने संगीत के पूर्ण ज्ञान के लिये भगवान शिव की तपस्या जो की थी। रूद्रप्रयाग जाएं। भगवान शिव के रूद्रावतार की मूर्ति के दर्शन होंगें। 
‘संगीत मकरंद’ में शिव की कला का गान है। शिव नृत्य करते हैं तो ब्रह्मा ताल देते हैं, विष्णु ढोल, सरस्वती वीणा, सूर्य-चन्द्र बांसूरी, अप्सराएं और गंधर्व तान देते हैं, नंदी और भृंगिरिडि मृद्दल बजाते हैं और नारद गाते हैं। महर्षि अरविन्द कहते हैं, दक्षिण में चिदम्बरम् स्थित मंदिर जाएं तो ध्यान दें। नटराज वहां पंचम प्राकार के अंदर है। यहां है उनका आकाश-स्वरूप। माने कहीं कोई अवकाश नहीं। यहां है संगीत के आद्य प्रवर्तक तुम्बुरू और देवकथा के गायक नारद। यह संगीत, व्याकरण और नृत्य की त्रिवेणीरूप साधनास्थली है। यह शिव ही हैं जो निर्गुण निराकार हैं तो माया की उपाधि से सगुण निराकार। उनका लिंगरूप निराकार और मूर्तिरूप साकार बोधक है। शिव। माने संपूर्णता। समग्रता। सत्यमं शिवं सुन्दरम्। 

1 comment:

manish joshi said...

शब्‍दो के सौंदर्य से सजा अदभूत वर्णन।