Sunday, September 23, 2012

छायाचित्रों का समय प्रवाह


फोटोग्राफी अतीत से अपनापा कराती कला हैं। क्षण जो बीत गया है, उससे प्रभावी संवाद आखिर छायाचित्र ही तो कराते हैं। कहूं, अतीत वहां विगत नहीं बल्कि समय के प्रवाह के रूप में हमारे समक्ष उद्घाटित होता है। बहुतेरी बार यूं भी लगता है कि छायाचित्र भिन्न भिन्न कालखंडो की रूप-गोठ है। माने समय के कोलाज। ऐसा कोलाज जहां स्मृतियां स्पन्दित होती है, पुराने दृष्य जीवित होते हैं। 
बहरहाल, कुछ दिन पहले एम.एन.आई.टी. स्थापना दिवस पर बहुत सारे आयोजन हुए। उनमें एक बीते दिनों की स्मृतियों को हरा करने वाली छायाचित्र प्रदर्षनी भी थी।
 छायाचित्र कला में रमते, उसी में अपना आपा तलाषने वाले छाया चित्रकार महेष स्वामी ने आग्रह कर प्रदर्षनी अवलोकन की नूंत दी तब मन में कुछ पूर्वाग्रह थे। इस बात को लेकर कि वहां नया क्या होगा! वही इन्स्टीट्यूट स्थापना और बाद के कुछ आयोजनो के फोटो ही तो होंगें। परन्तु जब छायाचित्रांे का आस्वाद किया तो प्रदर्षित छायाचित्रों की समय संवेदन दृष्टि ने सोच की नयी दीठ भी दी। लगा, छायाचित्र स्मृतियों के साथ अपने भीतर की भूलभुल्लैयों में भटकने का लूंठा-अलूंठा लेखा है। वहां दूसरों का अतीत आपको अपने अतीत में झांकने का अवसर भी देता है। भले छायाचित्रों में चीजें, स्थान और घटनाएं स्थिर हों परन्तु अंतर्मन संवेदनाओं को वे चलायमान करती है। एम.एन.आई.टी स्थापना, बाद के आयोजनों और वहां पढ़ने वालों की गतिविधियों से जुड़े बहुतेरे चित्रों में औचक एक उस चित्र पर नजर ठहर जाती है जिसमें दूर तक विराने के बीच बिखरी पड़ी इंटे पड़ी है। उजाड़ में निर्माण की आहट सुनाती। ऐसे ही एक में मदनमोहन मालवीय दिखाई दे रहे हैं, जिनकी स्मृति मंे इस संस्थान की स्थापना का आगाज हुआ है तो कुछ में किसी एक बैच का समूह चित्र और उसमें झांकते चेहरों का उजास दिख रहा है। संस्थान की खेल, षिक्षण गतिविधियों के साथ समय प्रवाह में बैच मिलन के वह चित्र भी हैं जिनमें समय के धूंधलेपन को हटाता अचरज और बरसों बिछोह के बाद मिलन के सुख को संजोया गया है।
बीते कल के साथ आज के भी कुछ चित्र हैं-संगीत की सुरमयी सांझ के, पेड़ की छांव तले सुस्ताते छात्रों के और फोटोग्राफी क्लब से जुड़ी छायाचित्र कला के। सभी में छायाचित्र कला की सूक्ष्म संवेदात्मक दृष्टि है। इन्हें देखते यह अहसास भी बार-बार हुआ कि यह फोटोग्राफी ही है जो माध्यम, चीजों, तथ्यों, घटनाओं और प्राकृतिक आभाष को दिखाते इन सबकी अनुभूतियों से भी हमें सराबोर करती है। यह भी कि कैमरानुमी यंत्र समय का अपने तई सृजन की दीठ से पुनराविष्कार करता है तो प्रकृति, घटनाएं, तथ्य और चीजें एक खास ढंग में रूपान्तरित होकर हमारे समक्ष उद्घाटित होती है। हमारे अवचेतन मन को झिंझोडती है और दिख रहे दृष्य के साथ देखने वाले की स्मृतियों का वातायन भी खोल देती है। महेष स्वामी छायाकला की गहरी संवेदन दीठ लिये रचनाकार हैं। छायाचित्र प्रदर्षनी अवलोकन करते ही पता चला कि यह उनकी ही परिकल्पना थी कि एमएनआईटी गोल्डन जुबली समारोह में पृथक से एक फोटो प्रदर्षनी भी हो। उनकी सूझ ही कहूंगा कि प्रदर्षित छायाचित्रों में अतीत से जुड़ी यादों के श्वेत-ष्याम चित्रों का भी डिजिटिलाईजेषन कर उन्हें इस खूबसूरती से फ्रेमिंग कर प्रस्तुत किया गया था कि समय संवेदना से जुड़ विगत वर्तमान में जीवन्त हो गया था।
निर्मल वर्मा का लिखा याद आ रहा है, ‘स्मृति की यह विषेषता ही है कि वह अपने पीछे कोई पदचिन्ह नहीं छोड़ जाती-वह स्वयं पद चिन्ह बन जाती है, परम्परा का मतलब इन पदचिन्हों पर चलकर उस वर्तमान को परिभाषित करना है जहां मनुष्य आज जीवित है।’ उनके कहे में यह मिलाने की धृष्टता कर देता हूं कि छायाचित्र स्मृति के वह पद चिन्ह हैं जो समय प्रवाह को रेखांकित करते हमारी स्मृतियों को अलंकृत कर उसे वर्तमान से जोड़ते हैं। आप क्या कहेंगे!


"डेली न्यूज़" में प्रति सप्ताह शुक्रवार को एडिट पेज पर  प्रकाशित स्तम्भ "कला तट" दिनांक 21.9.2012

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