Friday, September 7, 2012

दृष्य यथार्थ में अंतर्मन संवेदना के बिम्ब


कलाकारों से बिछोह का यह दुखद काल है। कुछेक वर्षों के अंतराल में ही कृपालसिंह शेखावत, द्वारकाप्रसाद शर्मा, ज्योतिस्वरूप, डॉ. प्रेमचन्द गोस्वामी, सुमहेन्द्र और कुछ दिन पहले पी.एन. चोयल जैसे कला स्तम्भ हमें छोड़कर चले गये। मुझे लगता है, इनके साथ ही राजस्थान की कला के जैसे एक युग का अवसान हो गया है। पी.एन. चोयल राजस्थान के ऐसे कलाकार थे जिन्होंने अपने दौर में चित्रकला में नवीनता का सूत्रपात किया। यह नवीनता कैनवस पर फॉर्म को लेकर ही नहीं थी बल्कि इतिहास, संस्कृति और सभ्यता के नए सृजन संदर्भ लिये थी। कभी अपने चित्रों को उन्होंने ‘फोटो रियलिज्म’ की संज्ञा दी थी। शायद इसलिये कि अपने उकेरे चित्रों में वह दृष्य यथार्थ के साथ अंतर्मन संवेदनाओं के गहरे बिम्ब रखते थे। खैर, यह उनके कार्य के आरंभ के दिनों की बात है। बाद के उनके काम को देखंे तो यह सहसा ही यह अहसास होता है कि चोयल के चित्र संरचना और रूपाकारों में देष की कला धारा से सर्वथा पृथक अपनी मौलिक पहचान लिये थे। उनके चित्रों में वाष और टेम्परा की एप्रोच भले रही हो परन्तु जड़त्व से मुक्त उन्होंने अपने तई चित्रों की नई शैली ही एक प्रकार से विकसित की। यह शैली ऐसी थी जिसमें रेखीय न्यूवता में धुमिल होते रंगो में स्मृतियों, भीतर की सोच और अनुभवों का अनूठ ताना-बाना कैनवस को समृद्ध करता था।
पी.एन. चोयल की कलाकृतियां देखता हूं तो औचक यह विचार भी जेहन में कौंधता है कि रूप-अरूप, अंतरंग-बहिरंग से परे वह जो बनाते थे उसमें देखे हुए यथार्थ के साथ कहन का वह मुहावरा था जिसमें चित्र धुंआ-धुंआ होते परिवेष में देखने वाले की सोच में रच-बस जाता। भैंसो की उनकी चित्र श्रृंखला को ही लें। भैंसों की शरीर संरचना के साथ उनकी गति, मस्ती और विचरण की आवारगी के कोलाज मन में इस कदर बस जाते है ंकि एक बार नहीं, बार-बार उन्हें देखने का मन करता है। भैसों के चित्र ही क्यों, आकृतिमूलक उनके तमाम जो दूसरे चित्र हैं उनमें अनुभव और स्मृतियों का अपनापा गहरे से ध्वनित होता है। इसीलिये कि वहां दृष्य यथार्थ की बजाय सौन्दर्य की कला दीठ सर्जक बनी है। उनके चित्रों में स्वयं उनकी अभिव्यक्ति की छटपटाहट के साथ ही समय से उपजे तनावों को भी स्पष्ट महसूस किया जा सकता है। कभी उन्होंने अपनी एक कलाकृति में नारी देह से निकलती आग की लपटों को नियंत्रित करते घोड़े को रूपाकार दिया तो ऐसे ही ‘घुंघट’ श्रृंखला के अपने चित्रों में नारी की भोग्या स्थिति के जरिए स्त्री के देह के दर्शन को जैसे उभारा है। पौराणिक प्रसंगों के उनके चित्रों में, चाहे वह कृष्ण एवं अर्जुन संवाद हो या फिर रावण वध हो-इनके पार्श्व में नारी की दयनीय स्थिति भी अलग से उभारी दिखाई देती है।  
बहरहाल, पी.एन. चोयल ने नारी संवेदनाओं को ही अपने कैनवस पर सांगोपांग ढंग से नहीं उभारा है बल्कि उनके कैनवस में उभरी इतिहास प्रसिद्ध इमारतें भी अलग से आकृष्ट करती है। याद पड़ता है अर्सा पहले उनकी ‘परसेप्शन ऑफ चित्तौड़’ श्रृंखला चित्रों को देखते हुए मन उनमें जैसे रम सा गया था। धुंध के आवरण से धीरे-धीरे स्पष्ट होती चित्तौड़ के किले, वहां के महलों की आकृतियांे के भग्नावशेष के यथार्थ चित्रण के बावजूद उनमें कला के लोक का आलोक ऐसा है, कि मन उन आकृतियों पर ही भटकने लगता है। यह उनकी कला का वह सौन्दर्य ही तो है जो जिर्ण-शीर्ण और खंडहर होती आकृतियो में भी जैसे जान डालता है। चाक्षुस यथार्थ की उनकी कलाकृतियां में एन्द्रिक बोध होता है। रेखांकन इतना सधा हुआ कि उकेरी आकृतियां और उनका अहसास मस्तिष्क पर छा जाता है। सादगी भरे रंगों के अंतर्गत काले, भूरे, मटमैले रंगों के साथ ही उन्होंने चटख रंगों का जैसा प्रयोग किया है, उससे उनकी संवेदनाएं पूरी तरह से दर्शक के सामने उभरकर सामने आती है। यह जब लिख रहा हूं, रंगो को ब्रश से कैनवस पर लगाने की बजाय बहाकर लगाने की उनकी तकनीक से सृजित उनके बहुतेरे चित्र ही जेहन में कौंध रहे हैं। 

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