Saturday, September 15, 2012

मांड में संस्कृति का उजास


मधुर और श्रृंगारिक राग है मांड। आरोह-अवरोह में वक्र सम्पूर्ण राग। समय का कहीं कोई बंधन नहीं। जब चाहे, तब गायें। संगीत की विष्णु नारायण भातखंडे की परम्परा की मानें तो मांड राग बिलावल थाट में आता है परन्तु सुनते हैं तो मांड का लोक संगीत मिश्र राग में ध्वनित होता लगेगा। स्व. अल्लाह जिलाई बाई का ‘पधारो म्हारे देस...’ तो का पर्याय ही हो गया है। उनके स्वर माधुर्य में न जाने कितनी बार इसे सुना और हर बार सुनने का सर्वथा नया आनंद मिला। 
मांड को यहां याद करने की वजह है, पिछले दिनों जवाहर कला केन्द्र में संगीत नाटक अकादेमी द्वारा आयोजित मांड समारोह। इसमें मांड गायकी पर व्याख्यान भी हुए और कलाकारों ने मांड के भिन्न रूप भी प्रस्तुत किये। मांड सुनने का हाल यह था कि लगातार तीन दिन प्रेक्षागृह श्रोताओं से खचाखच भरा रहा। माने लोक संगीत की जड़ें अभी भी हरी है। आखिर यह लोक संगीत ही है जो सहज मानवीय संवेदना से जोड़ता हमें अपने आपे से रू-ब-रू कराता है। और मांड तो राजस्थान के लोक का आलोक है। 
लोकगीत की स्वर लहरियों में निषाद का प्रयोग भी मांड में गजब का होता है। अल्लाह जिलाई बाई, गवरी देवी, मांगी बाई की निषाद प्रयोग की मांड सुनते गले का उनका कंपन मन में गहरे से बस जाता है। जवाहर कला केन्द्र में ‘महला री खिड़की खोलो..., ‘जला रे...’छप्पड़ पुराणा पड़ग्या, तिड़कन लाग्या बांस...’ मांड सुनते मन में यह खयाल भी बार-बार आ रहा था कि यही वह लोक संगीत है जिसमें बिछोह, श्रृंगार, सौन्दर्य के भाव गहरे से सजते हैं। सुनने के बाद भी गान से हम उबर ही कहां पाते हैं!
बहरहाल, यह मांड ही है जिसमें राजस्थान के विभिन्न अंचल अपनी संस्कृति में ध्वनित होते है। माने बीकानेर, जैसलमेर, बाड़मेर, सीकर, उदयपुर, जोधपुर की मांड गायकी में स्थान-विषेष के लोगों के रीत-रिवाज और संस्कृति के साथ ही वहां की बोली की झलक भी अलग से ध्यान खींचती है। मांड के माधुर्य में रमते ही कभी राजा-महाराजाओं ने रियासतों में गुणीजन खानों की स्थापना कर वहां बाकायदा मांड के प्रषिक्षण की भी पहल की। बीकानेर और जोधपुर के गुणीजनखानों से ही अल्लाहजिलाई बाई और गवरी देवी सरीखी स्वर कोकिलाएं हमें मिली। मारवाड़-मेवाड़ की मांड गायकी का अपना अंदाज है। अरसा पहले उदयपुर की ख्यात मांड गायिका मांगीबाई से जयपुर में ही लम्बा संवाद हुआ था तब उन्हें सुना भी था। याद पड़ता है, अस्सी पार मांगीबाई ने ‘बायरियो’ सुनाया था। उनके कंठ माधुर्य में मेवाड़ी संस्कृति का उजास भी जैसे दिखाई दे रहा था। अल्लाहजिलाई बाई ‘पधारो म्हारे देस...’गाती तो पावणों की मेजबानी की राजस्थानी संस्कृति के दृष्य चितराम भी अनायास आंखों के सामने घुमने लगते हैं। ‘सुपनो,’ ‘हेलो, ‘जल्ला’, ’ओळ्यू’, ‘कलाली’, ‘कुरंजा’ गीतों को सुनेंगे तो राजस्थान की संस्कृति के अनूठे चितराम, परम्पराएं भी आंखों के सामने जैसे तैरने लगेगी। यही तो है लोक का वह माधुर्य जिसमें सुना ही नहीं जा सकता, सुनते हुए देखा भी जा सकता है। 
यूं शब्द व्याख्या करेंगे तो मांड का सामान्य अर्थ होगा-मांडना, अंकित करना। मांड सुनते हैं तो गान के सुर मन में कहीं गहरे से अंकित ही तो होते हैं। आखिर ऐसे ही तो अंकित नहीं है मन में लोक गायिका धीरा सेन की वह मधुर गायकी। याद पड़ता है, वह काॅलेज के दिन हुआ करते थे। तब आकाषवाणी बीकानेर में अस्थायी उद्घोषक का कार्य भी करता था। राजस्थानी लोकगीतों का बेहद लोकप्रिय कार्यक्रम ‘गुंजे गांव गुवाड़’ प्रस्तुत करते हर सप्ताह उसकी शुरूआत धीरा सेन के ‘काळो जी काळो, कईं करो सहेल्या ए...’ से ही करता। इस लोकगीत में ‘उभण तो उजास बरण्यो, गांया रा गुवाड़ चाल्या, पंछिड़ा महाराज चाल्या..’ बोल सुन सब कुछ भूल जाता। आंखों के सामने गांव के गोबर लीपे घरों की ओर लौटती धूल उड़ाती गायों के दृष्य और एक अजीब सा अपनापा तैर जाता। बनावटी रहित परिवेष का अपनापा।... असल संगीत यही तो है। अपने आपे से साक्षात् आखिर इस सगीत के उजास से ही तो हो सकता है! 


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