Friday, October 12, 2012

सम्मान चिन्तन के साथ संगीत का


संगीत नाटक अकादमी ने कलाओं के विशिष्ट प्रदर्शन, कला गुरू और कलाओं का बेहतर ज्ञान रखने वाले जिन विद्वानों को इस बार संगीत नाटक फैलोशिप सम्मान दिया है, उनमें जयपुर के मुकुन्द लाठ भी सम्मिलित हैं। पढ़कर सुखद लगा। इसलिये कि कलाओं के प्रदर्शन के साथ कला चिन्तन पर अकादमी ने किसी ऐसे शख्स को फैलाशिप प्रदान की जिसके संगीत के साथ तमाम दूसरी कलाअेां के गहरे सरोकार हैं।
मुकुन्द लाठ से बतियाना संगीत और दूसरी कलाओं से अपने को संपन्न करना है। राग-रागिनियों और गान की प्रचलित धारणाओं से परे सदा ही चिन्तन में वह नया कुछ देते रहे हैं। कहूं, उन्हें सुनना पारम्परिक दृष्टि के नवोन्मेष का अनुभव करना है। पिछले दिनों अज्ञेय की भागवतभूमि यात्रा पर पढ़ रहा था तो वहां भी मुकुन्दजी को पाया। गायक मुकुन्दजी को। भागवतभूमि यात्रा में मुकुन्दजी ने जो गाया, उसके धु्रपद आलाप बोल थे ‘आयो कुंवर कान्ह, मुरलीधर नाम’। मुकुन्दजी के चूंकि शब्द से भी गहन सरोकार है सो वह शब्दातीत को राग की डोर से बांध मूर्त करते हैं। यह इसलिये कि कुछ दिन पहले उनके निवास स्थान पर ही उस्ताद अमीर खां और उस्ताद रहीम फहीमुद्दीन खां के गायन पर घंटो जब चर्चा हुई तो बहुत कुछ उन्होंने गाकर भी समझाया था। धु्रपद की बारीकियों से यह अलग ढंग से मेरा साक्षात्कार था।
बहरहाल, मुकुन्दजी प्रचार से सदा ही दूर रहे हैं। सौम्य और कहन में अद्भुत धैर्य अंवेरने की उनका मुद्रा मन में गहरे से बसती है। बहुतेरी बार यह भी अनुभूत किया है कि उचित प्रशंसा में भी वह बेहद संकोच का अनुभव करते हैं। कलाओं के तो खैर वह मौन साधक हैं ही। याद पड़ता है, पंडित जसराज का विद्याश्रम में कार्यक्रम था। उससे एक दिन पहले मुकुन्दजी के निवास स्थान पर ही उनसे संवाद करने पहुंचा था। मुकुन्दजी पंडित जसराज के शिष्य हैं। सो जब पहुंचते तो देखा मुकुन्दजी पंडितजी के साथ ही रियाज कर रहे थे। छायाकार महेश स्वामी जसराज के चित्र लिये जा रहे थे और मैं और पंडितजी संगीत पर घंटो बातें करते रहे। मुकुन्दजी शांत बस हमें सुन रहे थे। संकोच नये शिष्य की मानिंद ही। उनके व्यक्तित्व की यही खासियत है, अपने को कभी किसी स्तर पर स्थापित करने का प्रयास वह कभी नहीं करते। कभी विजयदान देथा का एक संग्रह आया था ‘रूंख’। उसमें भी मुकुन्दजी की अनुवादित कविताओं से रू-ब-रू होते लगा वह शब्दों में निहित सांगीतिक लय को गहरे से पकड़ते हैं। वत्सल निधि द्वारा आयोजित डॉ. हीरानंद शास्त्री स्मारक व्याख्यान माला की बारहवीं कड़ी में उन्होंने ‘संगीत एवं चिन्तन’ पर व्याख्यान दिया था। इस व्याख्यान को ही ‘संगीत एचं चिन्तन’ पुस्तक में पढ़ते औचक संगीत और धुनों की मन में बनी प्रचलित बहुत सी धारणाएं जैसे टूटी। दर्शन और संस्कृति के संगीतपरक विमर्श में राग और धुनों को केन्द्र में रखते हुए उन्होंने जो मौलिक स्थापनाएं की हैं, वे ऐसी हैं जिनमें संगीत स्वयमेव हमारे चिन्तन से जुड़ा अनुभूत होता है।  
मुकुन्दजी शास्त्रीय संगीत की तमाम हमारी परम्पराओं, रागों और नृत्य की गहरी समझ रखते हैं। संगीत को दर्शन से जोड़ते वह जब किसी खास राग और धुन पर संवाद करते हैं तो लगता है आप संगीत पर अब तक जो जानते थे, वह कुछ भी नहीं था। संगीत को मन के विचारो से जोड़ते वह अद्भुत लय अवंेरते हैं। कहते हैं, ‘...मान भी लें कि चिन्तन के साथ संगीत बज नहीं सकता लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि किसी भी तरह की जुगलबंदी हो ही नहीं सकती।’ इसमें मैं यह भी जोड़ देता हूं-यह जुगलबन्दी आपको देखनी हो तो संवाद करे मुकुन्द लाठ से। कशम से, निराशा तो नहीं ही होगी।

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