Saturday, October 20, 2012

साखलकर की सूक्ष्म कला दीठ


कलाएं किसी भी समाज या सभ्यता की परख की एक प्रकार से दीठ देती है। यह कलाएं ही हैं जिनसे समाज में सृजन की अनंत संभावनाए सदा बनी रहती है। इसलिये कि कला और कलाकार समाज व्यवस्था के कर्मचारी नहीं निर्माता होते हैं। रत्नायक विनायक साखलकर ऐसे ही समाज निर्माता हैं, जिन्होंने कलाओं के जरिए समाज को समझने की दृष्टि हमें दी है। यह बात अलग है कि उनकी कला और कलाओं की परख की पैनी दीठ के प्रति एक प्रकार से हम-सबकी नुगराई ही रही है।
बहरहाल, राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी की ओर से इस सोमवार उन्हें प्रज्ञा पुरस्कार दिया गया है। प्रज्ञा पुरस्कार किसी भी उस लेखक को दिया जाता है, जिसकी पुस्तकों के 15 संस्करण राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी ने प्रकाशित कर बेचे हों परन्तु इस दीठ से तो साखलकरजी वैसे भी बहुत आगे निकल गये थे। उनकी कला पर लिखी बेहतरीन पुस्तक ‘आधुनिक चित्रकला का इतिहास’ के तो 23 संस्करण अब तक प्रकाशित हो चुके हैं। महत्वपूर्ण यह नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि कला पर मौलिक चिन्तन रखने वाले किसी लेखक की प्रज्ञा का सम्मान किया गया है। और वैसे भी रत्नायक विनायक साखलकर चित्रकार होने के साथ ही कलाओं पर मौलिक समझ से लिखने वाले उन भारतीय लेखकों में से है जिन्होंने कलाओं पर लिखे के अनुसरण की बजाय अपने तई कला मंे चिन्तन की सदा ही नई स्थापनाएं की है। पाश्चात्य और भारतीय कलाकारों और कलादृष्टि पर उन्होंने जो लिखा है, उसमें स्वयं उनकी मौलिक सोच हर ओर, हर छोर है।
ऐसे दौर मंे जब उच्च शिक्षा पाठ्यपुस्तकों के अंतर्गत पांच-दस पुस्तकें एकत्र कर उनसे कोई नई पुस्तक निर्माण की परिपाटी ही चल निकली हो, यह सोच कर संतोष होता है कि कला की शिक्षा प्राप्त कर रहे विद्यार्थियों के पास साखलकरजी जैसे लेखकों की पुस्तकें भी हैं। उनके कला लेखन की बड़ी विशेषता है कलाओं की स्वयं उनकी समझ और उस पर उनकी सूक्ष्म अंतःप्रवृति। उनकी लगभग सभी प्रकाशित कला पुस्तकों का आस्वाद किया है। पाश्चात्य और भारतीय कलाकारों की कला पर, कला में सौन्दर्य पर, कला के अन्तःअनुशासन पर, रूपांकन के अर्न्तनिहित पर, बिम्ब और रूपकों के साथ ही परम्परा और आधुनिकता पर तमाम उनके लिखे में भारतीयता का अपनापन गहरे से मन में पैठता है। माने योरोपीय कलाकारों और उनकी कला पर लिखते हुए भी वह भारतीय दृष्टि से उन पर अपनी सूक्ष्म समझ से पाठक को एक प्रकार से संस्कारित करते हैं।  हिन्दी में कलाओं पर पर यूं भी बहुत अधिक लिखा नहीं गया है और जो थोड़ा बहुत लिखा गया है, उसमें प्रायः अंग्रेजी की बू आती है। परन्तु साखलकरजी हिन्दी के अनन्य कला लेखक है। कला संबंधी लिखे में अंग्रेजी शब्दों की बहुतायत के घोर विरोधी भी। इसीलिये अपने कला शब्दकोश में उन्होंने भारतीय जीवनदर्शन के अनुरूप ड्राइंग, कम्पोजिशन, प्रपोर्शन, टोन, बैलन्स जैसे आंगल शब्दों के लिए हिन्दी में उपयुक्त शब्द भी दिये।  कला के अपने तमाम लिखे में स्वनिर्मित भाषिक परनिर्भरता से मुक्त होने की राह सुझाते यह साखलकरजी ही हैं जिन्होंने हिन्दी में कला शब्दावली को संपन्न किया। कलाओं पर चिन्तन की नयी दीठ दी है और भारतीयता में रची-बसी बेहद सुन्दर कलाकृतियां भी सृजित की। उनकी कलाकृतियों से रू-ब-रू होते रंगों की मिठास, रेखाओं का उजास और भावों की गहराई भीतर से जैसे हमें भरती है। रवीन्द्रनाथ टैगोर की कलाकृतियों की मानिंद उनकी कलाकृतियों में भावों की गहरी अर्थ अभिव्यंजनाए हैं।
बहरहाल, कलाओं में रमते, उनमें बसते रत्नायक विनायक साखलकर ने अपने तई हिन्दी कला आलोचना को निरंतर समृद्ध किया है। क्या ही अच्छा हो, उनके नाम पर ललित कला अकादमी या कला-संस्कृति विभाग उनके जीतेजी कला आलोचना पुरस्कार की शुरूआत करे। कलाकारों, कलाओं की चर्चा समाज में आखिर उन पर सूक्ष्म अंर्तदृष्टि से लिखने वालों से ही क्या नहीं होती!

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