Friday, February 1, 2013

सरोद में माधुर्य रस की वर्षा


कानों से होता हुआ संगीत मन तक पहुंचता है। लय और ताल में बंधा स्वर प्रवाह वहां जो है! कालिदास इसीलिए तो कहते हैं, ‘अहो रागबद्ध चित्तवृति आलिखित इव सर्वतो रंगः’ माने राग के माधुर्य से हृदय आकर्षित होने से श्रोता चित्रलिखित-से निश्चल बैठे रहते हैं। सच ही तो है, आरोह-अवरोह का नादब्रह्म है संगीत। जवाहर कला केन्द्र में बुधवार सांय उस्ताद अल्लादिया खां शास्त्रीय संगीत समारोह में पंडित बसन्त काबरा जब अपनी प्रस्तुति दे रहे थे तो तारों से कंपित उनके सरोद वादन में ही मन जैसे बस गया। 
पहुंचा तो, सरोद के तारों पर पंडित काबरा राग श्री की तान छेडने लगे थे। माधुर्य का अद्भुत प्रवाह तन-मन को झंकृत करने लगा। लगा, प्रार्थना के स्वर बढ़त कर रहे हैं। चहुंदिशा में गूंजायमान होते। आलाप के साथ खिलने लगा राग। ऐसे जैसे कली से शनै शनै खिल रहा हो फूल। पंखूरी दर पंखूरी झरता। तारों से उपजा गान। सरोद में स्वयं भी लीन हो पंडित काबरा सुनने वालों को सुरों की यात्रा कराने लगे। मींड और गमक में राग का विलम्बित लय में विस्तार। ...आलाप, जोड़, झाला, झपताल। धीरे-धीरे आरोह-अवरोह में बढ़ता सप्तक का कारवां। तंत्रकारी के साथ गायकी अंग का अद्भुत सुरीलापन। संगीत में रचता-बसता मन। राग श्री में पंडित काबरा जैसे प्रभु अर्चना कर रहे हैं। तेजी से चलती उनकी अंगुलियां। तारों में कंपन्न की दूर तक ले जाती सम्मोहक गूंज। मंदिर में जैसे आरती की धुन। बढ़ती हुई। औचक, काबरा के सरोद में एक नहीं अनेक वाद्यों की ध्वनियां जैसे निनादित होने लगी। घंटियां। ढोल-मंजिरे। प्रार्थना स्वरों का अनुष्ठान। स्वरों का पवित्र सौन्दर्य! 
मुझे लगता है, पंडित बसन्त काबरा सरोद में मार्धुय की अद्भुत सर्जना करते हैं! सरोद सुनते लगता है, संगंीत जीवनानुराग है। जीवन की नश्वरता का भान कराता ईश्वर की अर्चना को प्रेरित करता। यह संगीत ही है जिसमें ईश्वर से साक्षात् की अनुभूति होती है। फिर, राग श्री तो संगीत के आदि देव भगवान शिव से जुड़ा राग है। मोह-माया से मुक्त करता। आनंद की अनुभूति कराता। गुरू ग्रंथ साहब में कुल 31 राग है और वहां ‘राग श्री’ ही सबसे पहले आता है। नानक, गुरू रामदास, गुरू अर्जुन आदि ने इसी को आधार बना सबद गान किया। 
सरोद के साथ तबले पर उस्ताद अकरम खान की संगत भी कम प्रभावी नहीं थी। लय-ताल का सांगोपांग मेल। पंडित जी ने राग श्री के बाद राग मिश्र पीलू का वादन किया। स्वरों की अद्भुत रंजकता। मन को आंदोलित करती। रूपक मध्यलय में गत बजा जैसे उन्होंने राग मिश्र पीलू में उत्सव का आगाज किया। एक में घुला दूसरा। दूसरे में तीसरा। तीसरे में चैथा...। परस्पर घुलते, मोहकता का जादू बिखेरते सरोद के स्वर। संगीत की कभी न भुला देने वाली यात्रा। झूला। झरने। नदी। पहाड़ों के रास्ते। भांत-भांत के खिले फूल। पानी के बूलबूलों सा होता मन।...और फिर लोरीनुमा होले-होले थपकियां। सच! संगीत मन को अवर्णीय यात्रा कराता है। वहां ले जाता है जहां चाहकर भी कोई नहीं जा सकता। माधुर्य के आह्वान का अनुष्ठान है संगीत। सरोद वादन करते काबरा संगीत तत्व के बोल और झाला का अद्भुत निभाव करते हैं। मुझे लगतां है, बगैर किसी दिखावे के उन्होंने सरोद में अपने को साधा है। बाद में जब संवाद हुआ तो उनकी सहजता और संकोच में डूबी विनम्रता में ही राग रंग को अपने तई गुना।
बहरहाल, प्राचीनतम वाद्य है सरोद। रबाब का परिस्कृत रूप। कहते हैं ईरान-अफगानिस्तान के रास्ते कभी यह भारत आया। और पंडित बसन्त काबरा का सरोद तो माधुर्य रस की जैसे वर्षा करता है। संगीत से अपनापा कराता। चाहकर भी उनके सुने को कोई बिसरा सकता है!



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