Friday, February 8, 2013

चिन्तन में संगीत


लय एवं ताल का व्यवस्थित रूप है संगीत। संगीत रत्नाकर के अनुसार गीत, वाद्य और नृत्य का समुच्य ही संगीत है। कहते हैं, ‘सम्यक् प्रकारेण यद् गीयते तत्संगीतम्’ माने संगीत वह जिसे सम्यक् प्रकार से गाया जा सके।  वह कला जिसमें स्वर और लय के जरिये भावों को प्रकट किया जाए। संस्कृति-निष्ठ ही तो है संगीत। इसलिए कि यह हमारी संस्कृति की पहचान कराता है। शायद इसीलिए संस्कृति पर चिन्तन को साथ लिए ही संगीत का विमर्ष हमारे यहां आगे बढ़ा है। कला की दृष्टि से संगीत पर संस्कृति से पृथक चिन्तन नहीं के बराबर हुआ है। इस दृष्टि से मुकुन्द लाठ से संवाद संगीत के अनूठे अनभव भव में ले जाता है। वह संगीत के मर्मज्ञ हैं और कईं अर्थों में देष के एक मात्र आधिकारिक विद्वान भी। पंडित जसराज के षिष्य होने के साथ ही वह संगीत के विरल शब्द साधक हैं। उनके चिंन्तन में संगीत की परम्परागत अवधारणाओं की बजाय विचार की बढ़त है। राग, धुन, आलाप की संगीत शब्दावली के सैद्धान्तिक पक्ष की बजाय वह उसके वैचारिक अन्र्तनिहित में जाते चिन्तन का नया आलोक जो देते हैं। 
बहरहाल, अभी बहुत दिन नहीं हुए। याद करता हूं, वह भोर उत्सवधर्मी थी। यह मुकुन्दजी के निवास की भोर थी। उनका निवास भी निवास कहां है! संस्कृति का अनमोल खजाना है। देष-विदेष के कलाकारांे की कलाकृतियां। पुस्तकें। संगीत वाद्य और संस्कृति से जुड़ी वस्तुओं का दुर्लभ संग्रह। उनके इस संस्कृति घर में उस भोर कला-संस्कृति से जुड़े बहुतेरे हम लोग जमा थे। अधिकतर विदेषी चेहरे। कुछ मुकुन्दजी के संगीत चिन्तन पर शोधरत तो कुछ स्वयं उनके षिष्य। मुकुन्दजी की धर्मपत्नी नीरजा लाठ अपनापे से स्वागतातुर। पता चला, कुछ खास नहीं बस ऐसे ही बतियाने, मिलने-मिलाने के लिए ही सभी को याद किया गया है। ऐसा भी होता है! सुखद। छायाकार मित्र महेष स्वामी के साथ के साथ मुकुन्दजी से हुए संवाद को गहरे से जिया गया।
मुकुन्दजी संगीत शब्द साधक हैं। संगीत को शब्द से साधने वाले। बेहद संकोची। अपने बारे में कुछ बताते, संगीतविद् कहाते संकोच में गड़ जाते हैं। पर संगीत के वह अद्भुत विचार संवाहक हैं। बातें हुई तो कहने लगे, ‘सामगान हमारा सबसे प्राचीन संगीत ही नहीं, परवर्ती राग-संगीत का जनक भी है। पर साम धुन है, और राग धुन से बिल्कुल अलग। यह कहते वह धुन की अपने तई जो व्याख्या करते हैं उसमें हमारे संस्कार जैसे आंखों के समक्ष घुमने लगते हैं। यह वह संस्कार हैं, जिन्हें बरतते बरतते ही हम बहुत से स्तरों पर धुन के स्वयमेव सर्जक हो जाते हैं। उन्हें सुनते औचक लगता है, संगीत जीवन से जुड़ा राग ही तो है! ऐसे ही आलाप की उनकी व्याख्या देखें, ‘आलाप का अर्थ है बदल-बदल कर बढ़ना। स्वरों के नये नये बनाव, नई उपज, नये विस्तार, चलने के नये रास्ते, इन पर चलना। आलाप की इस व्याख्या के साथ ही वह स्वरों की संगति में संगीत की तलाष करते हैं। कहते हैं, ‘स्वरों की अपनी संगति में, संगीत की अपनी मर्यादाओं और संभावनाओं में, हम औचित्य की कसौटियों की खोज कर सकते हैं।’ 
बहरहाल, हमारे यहां संगीत सुनते तो उसे गुना गया है परन्तु चिन्तन में संगीत कहीं नहीं दिखता। मुकुन्दजी इसे दिखाते हैं। वह संगीत को परम्परागत सैद्धान्तिक दायरों से बाहर निकाल उसमें विचार के नए उन्मेष जगाते हैं। काव्य संग्रह ‘अनरहनी रहने दो’ की एक कविता में संगीत-नृत्य को अंवेरते वह लिखते हैं, ‘...नृत्य के पूरे वलय का/देह-घेरे, देह बाहर/जागता है अंगहार/नृत्य के आकाष में/अनदिख/हमारे देखने के शून्य भीतर/नाचता है..।’ आपको नहीं लगता, संगीत चिन्तन की उनकी इस चेतना, मीमांसा में अनुभव की अद्भुत व्याख्या है! 

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