Friday, February 15, 2013

मोहे अपने ही रंग में रंग दे


सुगम संगीत माने जिसमें कहीं कोई बंधन नहीं हो। निर्बन्ध। कंठ से सहज निकले सरल स्वर। कहें, लोकप्रिय संगीत। लोकगीत, गजल, भजन सब सुगम संगीत ही तो है। सुनेंगे तो मन करेगा इन्हंे गुनें। लोक जीवन मंे प्रवाहित होकर ही तो आखिर कलाएं शास्त्रबद्ध होती है।
बहरहाल, भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद् द्वारा जवाहर कला केन्द्र में कुछ दिन पहले की एक सांझ सुगम संगीत को समर्पित थी। गायिका थी संगीता आर्य। उनकी सुमधुर गायकी में अभी भी मन जैसे बसा हुआ ही है। सुना उन्हें पहले भी है परन्तु इस बार जब सुना तो लगा, उनके स्वर माधुर्य में गजब की बढ़त है। बढ़त माने विस्तार। गजल, भजन और लोकगीतों के गान में स्वर भंगिमाओं की वहां अद्भुत वैविध्यता है। कहूं, सुरों की वह मौलिकता जिसमें सहज गीत, गजल के शब्दों में निहित भावों को जिया गया था। अमीर खुसरो की रचना ‘मोहे अपने ही रंग में रंग दे..’ जब संगीता गा रही थी तो लगा संगीत मन में भी कहीं गहरे से घट रहा है। यह भीतर का अनगढ है। कईं बार भले सुर बाहर नहीं आते परन्तु मन गाता है। सुरों की गहराई की यही तो अध्यात्म की हिलारें है। संगीता का गान भीतर की इन हिलोरों को जैसे बाहर लाता है। मुझे लगता है, यह हमारा संगीत ही है जिसमें तन और मन किसी के गायन से इस तरह से स्पन्दित होता है। यह संगीत ही तो है जो भीतर के हमारे भव को लयबद्ध करता है। अनंत की वाणी, अनंत के शब्दों का उजास। कहीं पढ़ा हुआ, ओषो का कहा याद आ रहा है। एक स्वर को दूसरे स्वर से जोड़ने वाला बीच का सेतु है संगीत। संगीता आर्य यही तो करती है। शास्त्रीय रागों को लोक संगीत से, लोक संगीत को जन-जन से स्वर दर स्वर जोड़ती है। संगीत का नया मुहावरा गढ़ते। आरोह-अवरोह में श्वास को साधते। कहीं कोई सुर वहां छूटता नहीं लगता। कभी उनके स्वरों में लोकगीत ‘नीम्बूड़ा’ सुना था। लगा, शब्द को लयबद्ध करती वह अनूठी लय अंवेरती है। आरोह से त्वरित अवरोह। अवरोह से त्वरित आरोह। 
बहरहाल, सुन रहा हूं। इन्हीं सुरों में वह गा रही है, ‘ऋतू राग रंग बरसाए...’, ‘सब जुदा सा लगता है...’ और सदाबहार राजस्थानी लोक गीत ‘केसरिया बालम...’। सुर जैसे गहने पहन श्रृंगार कर रहे हैं। छोटी-छोटी तानें। मुरकियां। 
संगीता आर्य के गाये लोकगीत मन को स्पन्दित करते हैं। ‘चिरमी’, ‘चैमासो’, ‘बन्ना’, ‘केसरिया बालम’ में राजस्थान की माटी की सहज सौंधी महक। लोक वेदना का मर्म। सुरीलेपन में शब्द के अन्र्तनिहित की साधना। गान में शब्दों का सागीतिक उजास। भावनाओं का अनुठा भव। जहन में गांव, गांव की संस्कृति से साक्षात्। तरूण पंवार के संगीत निर्देषन में संगीता का गाया ‘छोटी सी उमर परणाई रै बाबोसा...’ को याद करता हूं। अद्भुत स्वर माधुर्य। सुनेंगे तो लगेगा, वेदना से उपजे इस उलाहने में भीतर का दर्द जैसे स्वरों से छलक-छलक बाहर आ रहा है। सुना इसे दूसरे स्वरों मे पहले भी था परन्तु संगीता आर्य की साफ आवाज और स्वरों का सहज प्रवाह मन मंे घर करता है। शायइ इसलिए की धोरों की धरा, उसके परिवेष की सहज लय वहां अंवेरी गयी है। यही क्यों, सुगम संगीत में और दूसरे गीत, गजल भी संगीता के सुरों में सुनते मन करता है-उनमें रचें, वहीं बसें। वहां परम्परा के सहज रंग जो हैं! संगीत के रंगों में इसीलिए तो संगीता आर्य ‘ओळ्यू’ की संवाहक बनती राजस्थान की वैविध्यपूर्ण संस्कृति की अपने तई ‘ओळख’ कराती है। आप क्या कहेंगे!

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