शिवजी के छाया-चित्र
कलाएं भीतर की हमारी संवेदना को चक्षु देती है। बहुतेरी बार वस्तुएं, दृष्य और अवस्थाएं ठीक हमारे सामने होती है परन्तु उन्हें हम खुली आंखो से भी देख नहीं पाते हैं, समझ नहीं पाते हैं। कला की दीठ संवेदना के जो चक्षु देती है, उसी से तब बात बनती है। छायाकंन की ही बात करें। वहा यथार्थ का सादृश्य ही तो कैमरा दिखाता है परन्तु उसे बरतने वाला यदि कलाकार है तो वह दृश्य में निहित उस सौन्दर्य से भी हमारा साक्षात् करा देता है, जो नंगी आंखों से चाहकर भी हम देख नहीं पाते हैं।
बहरहाल, शिवनारायण जोशी ‘शिवजी’ देश के प्रख्यात छायाचित्रकार हैं। कुछ दिन पहले वह जब जयपुर में थे तो उनके छायाचित्रों से साक्षात्कार हुआ। संवाद भी हुआ। लगा, छायाचित्रों में वह दृश्य की संवेदना में जाकर उसमें निहित सौन्दर्य को वह पकड़ते हैं। मसलन बहुतेरी बार वस्तुएं, दृष्य और अवस्थाएं ठीक हमारे सामने होती है परन्तु उन्हें हम समझ नहीं पाते हैं। षिवजी अपने छायाचित्रों से हमें जैसे वह अवस्थाएं समझाते हैं। ऐसे बहुत से उनके छायाचित्रों में से एक है, मंदिर मे हुई आरती के बाद का। आरती होने के बाद बहुत सारे हाथ एक साथ आरती लेने को उत्सुक है। पाष्र्व में आरती और उसको लेने को खड़े हाथ। इसे देखते मंदिर में होती आरती जैसे हमारी आंखों के समक्ष जीवनत हो उठती है। रोजमर्रा में ऐसे बहुत से दृष्यों से हम साझा होते हैं परन्तु उनमे निहित इस प्रकार की संवेदना को हम क्या पकड़ पाते हैं! ऐसे ही एक छायाचित्र है, ऊपर श्वेतिमा ओढ़े पहाड़, नीचे हरितिमा से आच्छादित धरित्रि और दाहिने-बांये छितराए बादल। गौर करता हूं तो पाता हूं, हिन्दुस्तान का नक्षा मांड दिया गया है। षिवजी ने यह छायाचित्र बद्रीनाथ मंदिर के ठीक सामने दूर छोटी पहाड़ी पर औचक उभरते से भारत के नक्षे सरीखे लगते दृष्य को अनुभूत कर लिया था। हिमाच्छादित पहाड़ी और इर्द-गिर्द छाए बादल और हरियाली का काॅन्ट्रास्ट। दृष्य में उभरी छायाकंन की इस भरपूर संभावना को एक संवेदनषील कलाकार मन ही पकड़ सकता है!
ऐसा ही एक और छायाचित्र है, बारिष में भीगते जोधपुर के ऐतिहासिक दुर्ग मेहरानगढ़ का। पत्थरीली चट्टान पर मेहरानगढ़ वर्षा की बूंदों से भीग रहा है। उजाड़ की निरवता में सौन्दर्य कहां! सो भीगते मेहरानगढ के इस दृष्य को पाष्र्व में करते गुलाबी चुनर ओढ खड़ी महिला को इसका हिस्सा बना दिया। घटाटोप छाए बादल, बारिष, पहाड़ी पर मूक भीगता पाषाण दुर्ग और इस सबके विरोधाभाष में चटख रंग की चुनर ओढ़े महिला। छायाचित्र देखते लगता है, औचक इतिहास फीज़ा से रंगीन हो हमसे बतियाने लगा है।
शिवजी का कैमरा दृष्य में निहित गति को भी गहरे से पकड़ता है। एक चित्र में हाथ से रिक्षा चलाता व्यक्ति तेजी से रिक्षे को भगाए लिए जा रहा है परन्तु न तो दृष्य में रिक्षा स्पष्ट है और न ही उसे भागते हुए ले जाने वाला व्यक्ति। है तो बस गतिमान आकृतियों की धूंध। प्रेत सरीखा कुछ। कैमरे की भाषा में ये पैनिक इफेक्ट है। आदमी नहीं उसक प्रतिछाया जैसे दृष्य में भागी जा रही है। दृष्य का छाया में यही तो रूपान्तरण है। मुझे लगता है,षिवजी अपने छायाचित्रों में समय की गति को अपने तई रूपान्तरित करते हैं। इसलिए कि उनके छायाचित्रों में गति के साथ जीवन की सूक्ष्म अभिव्यंजना हुई है। वह वस्तुओं के प्रेत की गहराई में जाते उनसे हमारा नाता कराते हैं। इसलिए उनके चित्रों में पहाड़ ही नहीं पहाड़ों में औचक छितराकर आने वाले बादल, धूंध, धुंआ, अदृष्य ताप, दौड़ती-भागती जिन्दगी के दृष्यों का पल में होता लोप भी हमसे जैसे बतियाता है।
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