Friday, June 14, 2013

ग्राम्य संस्कृति की दृश्य लय


छायाचित्र क्षण को पकड़ने की अद्भुत कला है। कैमरेनुमा यंत्र को बरतने वाले में यदि कलात्मक बोध हो तो वह क्षण को अपने तई सौन्दर्य में रूपान्तरित कर सदा के लिए उसे जीवंत कर सकता है। किसी घटना, अवसर के छायाचित्रों की कलानिहितता इस बात में ही तो है कि वहां किसी खास क्षण में निहित संवेदना के मर्म को छुआ जाता है।
अभी बहुत समय नहीं हुआ। छायाकार ओम मिश्रा के छायाचित्रों की प्रदर्षनी का आस्वाद किया था। लगा, ग्राम्य जीवन, प्रकृति, घटनाओं और बीते अतीत को कैमरे से जीवंत करते वह रेत, रेत से जुड़े सरोकार और ग्रामीण परिवेश का सच उद्घाटित करते। यह ऐसा है जिसे देखकर भी प्रायः हम अनदेखा कर देते हैं। वही दृश्य जो पहले देखा हुआ है परन्तु उसे कैमरे से बरतते ओम औचक ही विशिष्ट बना देते हैं। मुझे लगता है, इधर के छायाकारों में वह ऐसे हैं जिन्होंने राजस्थान के ग्राम्य जीवन को गहराई से अपने कैमरे और संवेदना की समझ से उकेरा है। इसलिए कि उनके ग्राम्य छायाचित्रां में उभरे दृश्य कला का सर्वथा नव्य सौन्दर्यबोध हमें देते हैं।
उनका एक छायाचित्र है गांव के गोबर लीपे घर का। घर का आंगन और गोबर लीपी सीढि़यों पर बच्चे बैठे हुए हैं। सहज मुस्कान के साथ। इन बच्चों को छायाचित्र के लिए बाकायदा तैयार कर बिठाया गया है परन्तु इसमें ग्रामीण परिवेश को जिस खूबसूरती से बंया किया गया है, वह चाहकर भी कोई भुला नहीं सकता। बावजूद बहुत से दृश्यों की निर्मिती में संलग्नता के ओम मिश्रा के छायाचित्रों की कलात्मकता इस बात से है कि उनमें दृश्य की बजाय उसमें निहित परिवेश की संवेदना को गहरे से जिया गया है। वह दृश्य को अपने तई बहुतेतरी बार अपने चित्रों में निर्मित कराते मिलते हैं परन्तु वहां तब विषय में बच्चे, स्त्रियां गौण होकर उनके पाश्र्व का परिवेश होता है। एक छायाचित्र में दूर तक पसरी रेत पर एक युवती पारम्परिक राजस्थानी लंहगे-चुनी में नृत्य कर रही है। नृत्य करते उसके पैर रेत के धोरों में धंस रहे हैं। ओम मिश्रा ने धोरों में धंसते उसके पैरों के बहाने रेत पर उभरी स्वयं रेत की नृत्य भंगिमाओं को बेहद खूबसूरती से कैद किया है। लगता है युवती के साथ रेत भी थिरक रही है। होले-होले। पवन के झोंको के साथ रेत मंडे पगलिए। छायाचित्र को देखते मन उसी में अटक जाता है। एक छायाचित्र देखते कबीर की साखी जेहन में कौंधने लगी है, ‘माटी एक रूप धरी नाना’। चाक पर घड़ा घड़ते कुम्हार के मिट्टी सने हाथ दिखाई दे रहे हैं। पोर-पोर अंगुलियां। माटी सनी। माटी मूरत उकेरती। ओम सर्जन के इस दृश्य की बारीकी में गए हैं। कैमरे से दृश्य मंे निहित संवेदन को गहरे से छुआ है और उसे छवि में सदा के लिए अंकित कर दिया है।  
ओम मिश्रा दृश्य नहीं दृश्य की अंतरंगता को पकड़ते उसे हमारे समक्ष खास ढंग से उद्घाटित करते हैं। छायाकला की समझ के साथ प्रयोगधर्मिता का कलात्मक संयोजन अपने छायाचित्रों में वह करते हैं। ग्रामीण जीवन के उनके छायाचित्रों में रोशनी के साथ अपरचर तथा स्पीड संयोजन की विशेषता भी आकृष्ट करती है। उनकी छाया-छवियों में दृश्य बहुतेरी बार चलायमान होता प्रतीत होता है तो कईं बार अंधेरे से उभरती रोशनी संवेदना की नई आंख देती है। छायाचित्रों में यथार्थ के साथ दृश्य प्रभाव भी महत्वपूर्ण होता है। दृश्य तो वही होते हैं जिनसे बहुतेरी बार हमारा सामाना हुआ होता है परन्तु उस दृश्य में निहित वह महत्वूर्ण ही तो छायाकार तलाशता है जिसमें स्वयं उसकी कलात्मक सोच छुपी होती है। ओम मिश्रा यही करते हैं। वह छायांकन की अपनी कला में संवेदना की सीर के छायाचित्रकार हैं।

1 comment:

Vipul Goswami, Bikaner said...

Very nice blog on My fav. Photographer. Thanks....