Friday, June 7, 2013

भोपाल में जनजातीय संग्रहालय


इतिहास, परम्पराओं और संस्कृति की जड़ोें से जुड़ी है तमाम हमारी कलाएं। इनके मूल में ही सभ्यताओं का नाद है। इधर आधुनिकता में पनप रही एकीकृत विष्व-संस्कृति की विडम्बना यह है कि विरासत से जुड़ी जनजातीय कलाओं की हमारी थाती से हम निरंतर दूर भी होते जा रहे हैं। इसी से समूहों की सांस्कृतिक अस्मिता और समृद्ध जनजातीय परम्पराओं में निहित कलाओं का लोक निरंतर क्षीण भी होता जा रहा है। जरा सोचें, कलाओं का उद्भव लोक भावनाओं से ही तो हुआ है। चित्रकला, संगीत, नृत्य, नाट्य आदि तमाम कला-रूपों में जनजातीय समुदाय की सहभागिता का जो योगदान है, उससे क्या हम मुंह मोड़ सकते हैं! रूपंकर कलाएं आखिर व्यक्ति विषेष की रचना नहीं होकर अनेक अर्थों में सामुहिक ही तो रही है। इस दीठ से परम्पराओं की हमारी समृद्ध धरोहर को सहेजना ही आज सबसे बड़ी जरूरत है। यह सच है कि देश में स्थापित संग्रहालयों ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभायी भी है परन्तु बेशकीमती कलाओं को संजोने वाले यह आलय भी आज पुरा वस्तुओं के आगार भर बन कर रह गए हैं। ऐसे में मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में श्यामला हिल्स पर स्थापित जनजातीय संग्रहालय से कुछ आश जरूर जगती है। इसलिए कि वहां वस्तुओं की बजाय मानवीय अस्मिता को रेखांकित करने पर अधिक ध्यान दिया गया है।
इसलिए भी कि संग्रहालय की स्थापना के साथ उससे संस्कृतिकर्मियों, लेखकों को भी जोड़ा जा रहा है। संग्रहालय सांस्कृतिक चेतना के संवाहक है परन्तु संस्कृति बिगसाव के संदर्भ भी यदि उनसे जुड़ते हैं तो उनकी और अधिक सार्थकता है। संग्रहालय स्थापना आयोजन से जुड़े अषोक मिश्र बताते हैं, ‘दो वर्षों के सृजनात्मक परिश्रम से स्थापित संग्रहालय में आंचलिकता की जगह मानवीय अस्मिता को केन्द्र में रखा गया है।’ संग्रहालय की बड़ी विषेषता यह भी है कि इसमें आदिवासी कलाओं से जुड़े कलाकारों ने काम किया है। बाकायदा आदिवासी सभ्यता और संस्कृति के प्रतीक जीवन्त माॅडल यहां प्रदर्षित किए गए हैं। देष के ख्यात कलाकार अनिलकुमार से संवाद हुआ तो कहने लगे, ‘जनजातीय संस्कृति के साथ समृद्ध कलाओं का यह देषभर का अनूठा संग्रहालय है।’ वह जब यह कहते हैं तो औचक संग्रहालयों की उस भूमिका पर भी मन जाता है जिसमें संस्कृति संपन्न समाज की नींव निहित होती है। जनजातीय संस्कृति, इतिहास और परम्पराओं को जीवंत किए जाने की ही तो आज अधिक जरूरत है। बाकायदा इसके लिए कलाधर्मिता के आयोजनों की भी वहां दरकार है। इतिहास, अतीत और वर्तमान की दूरियों को कम करने का बड़ा कार्य जब संग्रहालय करते हैं तो क्यों नहीं उनके जरिए वर्तमान पीढ़ी में सांस्कृतिक बोध का भी संचार हो। 
बहरहाल, जनजातीय परम्पराओं, उनकी संस्कृति और विरासत पर देष में ब्रिटिष उपनिवेष और राजा-रजवाड़ों के दौर में तो फिर भी कुछ काम हुआ था परन्तु आदिवासियों के समूह पर समग्रता से विस्तारपूर्वक कहीं कोई विष्लेषण, विवरण अभी भी नहीं मिलता। इस दृष्टि से समाज की जीवन शैली, परंपरा और विरासत को व्यष्टि और समष्टि रूप से समझने और अध्ययन करने में जनजातीय संग्रहालय की विशिष्ट भूमिका आने वाले समय में रहेगी। इसलिए कि उसके प्रकल्प में देश के जनजातीय इतिहास, संस्कृति और परम्पराओं पर प्रकाशन के साथ ही वृत्तचित्रों के निर्माण आदि के उद्देश्य भी रखे गए हैं। इसी से सांस्कृतिक बोध को हम बचाए रख पाएंगें। संस्कृतिमूलक बीज प्रष्नों का समाधान भी आदिवासी और लोक कलाओं, परम्पराओ ंको सहेजने में ही निहित है। इसी से हमारी समृद्ध संस्कृति में जनजातीय कला की पहुंच सुनिष्चित होगी और संस्कृति का सृजन और उपयोग मानवीय अधिकार के रूप में प्रतिष्ठित होगा। आधुनिकता जरूरी है परन्तु इतनी ही जरूरत इस बात की भी है कि हम हमारी जातीय स्मृतियों से वंचित नहीं रहें। सांस्कृतिक चेतना परम्परा को विस्मृत नहीं होने दें। 


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