Friday, June 21, 2013

कला प्रदर्शनियों के सरोकार


कला का सौन्दर्य सत्य का स्वरूप है। वहां सौन्दर्य की हरेक में अलग-अलग प्रतीती होती है। मुझे लगता है, संगीत, नृत्य, नाट्य, चित्रकलाएं देखने के समय से ही जुड़ी हुई नहीं है, उनका सत्य हमारी स्मृतियों से भी जुड़ा है। कहें, यह कलाएं ही हैं जिनका सौन्दर्य देख-सुन कर ही महसूस नहीं किया जाता बल्कि स्मृतियों में भी सदा स्पन्दित करता है।
बहरहाल, अभी बहुत समय नहीं हुआ ख्यात कला क्यूरेटर अलका रघुवंशी से साक्षात् हुआ था। कला प्रदर्शन में अलका ने कुछ नए प्रयोग किए है। ख्यात कलाकारों की कलाकृतियों को क्यूरेट करते वह उनमें रमती है, बसती है। परम्परा के साथ आधुनिकता के नए कला संदर्भ जोड़ते हुए। इसलिए भी कि समकालीन कला जीवन से गहरे से जुड़े। आधुनिक कला को दैनिन्दिनी जीवन से जोड़ने के तहत आयोजित ‘अहसास’ प्रदर्शनी का आस्वदा करते कलाओं के अन्र्तसंबंधों को भी जैसे गहरे से जिया। संवाद हुआ तो कहने लगी, ‘यह सही है कि क्राफ्ट ने जिन्दगी को खूबसूरत किया है परन्तु सामयिक कला भी जिन्दगी को हसीन कर सकती है। इसीलिए मैंने ‘एहसास’ के तहत आधुनिक कला को दैनिन्दिनी जीवन से जुड़े परिधानों से जोड़ने का उपक्रम किया। यह जो प्रयोग था उसमें नर्तक, संगीतकार, कलाकार सभी जुड़े और इसी से यह सार्थक हुआ।’ अलका जब यह कहती है तो कलाओ के उनके बहुआयामी सरोकारों पर सहज ही मन जाता हैं। लोक कलाओं से लेकर शास्त्रीय कलाओं में उनकी गहरी पैठ हो है!
अलका की उपस्थिति कलाकृतियों के प्रदर्शन के बहाने बढ़ते क्यूरेटरों की भूमिका पर भी सवाल उठाती है। सवाल यह भी उठता है कि कलाकारों की कलाकृतियां कलादीर्घाओं में निंरतर प्रदर्शित हो रही है परन्तु स्मृतियों में इनमें से बहुत थोड़ी ही क्यों बसती है? शायद इसलिए कि वहां क्यूरेटर कलाओं के प्रदर्शन की व्यावहारिक सोच से नहीं जुड़ा होता।  अलका की भूमिका इस संबंध में महत्वपूर्ण है। वह देश की पहली प्रशिक्षित महिला कला क्यूरेटर है। गोल्डस्मिथ काॅलेज, लंदन और आॅक्सफोर्ड के म्यूजियम आॅफ मोर्डन आर्ट से दक्ष अलका ने इसीलिए भारतीय कलाओं को भिन्न आयामों में प्रदर्शित करने की भी अपने तई पहल की है। स्वयं भी वह कलाकार है। रंगो और रेखाओं की अद्भुत लय अवंेरती कलाकार। इसीलिए क्यूरेटर के रूप में उनके किए कार्य को खासतौर से याद किया जाता है। कलादीर्घाओं में कलाकृतियों के  प्रदर्शन को वह चुनौतीपूर्ण कार्य मानती है। कहती है, ‘कला प्रदर्शनी में क्यूरेटर की भूमिका का अर्थ यही थोड़े ना है कि आप कलाकार से कलाकृतियां ले लें और उनका प्रदर्शन कर दें। क्यूरेट करने का अर्थ है दृश्यात्मकता को क्रिएट करना। कलाकृतियों में ंजो दिख रहा है, उसके प्रभाव को ध्यान में रखते हुए कलाकृतियां का मेल करना। उनकी संबद्धता करना। इसी से शो में नूतनता आती है। यह जरूरी नहीं है कि एस्थेटिक सेंस हर लेखक में हो ही। है भी तो यह जरूरी नहीं है कि आप दृश्य को देखने वालों के अनुरूप नूतन करते हुए कलाकृतियां को हर आम और खास से साझा कर सकें। करना और सोचना अलग है।’ 
अलका के इस कहे में जाते हुए ही याद करता हूं, कलादीर्घाओं में प्रदर्शित वह कला प्रदर्शनियां भी जिनमें असंबद्ध दृश्यों की कलाकृतियां एक साथ मिली बहुत से सवाल पैदा करती है। सच ही है! किसी कलाकार की कला प्रदर्शनी क्यूरेट करने का अर्थ है, कलाकृतियों की प्रासंगिकता में जाना। उनकी परस्पर संबद्धता और कलाकार के समय सरोकारों से देखने वालों का नाता कराना। विरोधाभाषी चीजें भी साथ रहकर कैसे अलग होती है-इस चुनौती से कोई कला क्यूरेटर जूझता है और फिर कलाओं के सौन्दर्य की दर्शकीय दीठ पर जाता है-तभी ना उसकी सार्थकता है! आखिर कला मात्र दीवार पर टांगने की चीज ही तो नहीं है, जिदंगी का अहम हिस्सा है। 

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