Friday, July 19, 2013

संस्कृति, संस्कार और कलाएं


नाट्यशास्त्र यानी तौर्यत्रिक ग्रंथ। नाट्य के साथ गायन, वादन और नृत्य का मेल। भरतमुनि रचित नाट्यशास्त्र और विष्णुधर्मोत्तर पुराण के परिप्रेक्ष्य में कलाओ के अन्र्तसंबंधों पर बहुत से स्तरों पर निरंतर चर्चा होती रही है। आखिर मनोरंजन का बड़ा आधार हमारी यह कलाएं ही तो हैं। मनोरंजन माने मन को रंजित करना। मन का रंगना।  बड़ी बात यह है कि मनोरंजन के कला पक्ष को उससे जुड़े सांस्कृतिक संदर्भों से कैसा देखा जाए? भाषा के स्तर पर विचारें तो संस्कृत इसका बड़ा आधार हो सकती है। इसलिए कि मनोरंजन की जो विधाएं समाज में पुष्पित और पल्लवित हुई हैं, उनके पीछे कलाओं का ही मजबूत आधार रहा है। 
कहानी कहना भी तो एक कला है। विष्णु शर्मा रचित ‘पंचतंत्र’ को ही लें। ‘पंचतंत्र’ में कहानियां है पर कहन की कला का सौन्दर्य भी है। कुशल पारंगत गुरू मूढ शिष्यों को भी विवेकवान बना सकता है, यही इन कथाओं का आधार है। मूर्ख राजपुत्रों को जीव जंतुओं की कथा के जरिए नीति के महत्वपूर्ण संदेश इसमें दिए गए हैं। साहित्य के साथ मनोरंजन से जुड़ी कलाओं ने ही हमारी संस्कृति को बहुत से स्तरो ंपर समृद्ध किया है।  मसलन आज की पहेलियों को ही लें। कभी दरड़ी ने ‘काव्यादर्श’ में सोलह प्रकार की प्रहेलिकाएं बतायी थी। कहते हैं उसी से बाद में खुसरो ने ‘बूझ पहेली’ और ‘बिन बूझ पहेलियां’ गढ़ी। संगीत की बात करें ंतो धु्रवपद में ‘तन देदे ना’, ‘द्रे द्रे तनोम’ जैसे निर्थक शब्द भी कुछ इसी तरह से आए। कहते हैं अमीर खुसरो जब भारत आए तो उन्हें ध्रुवपद की भारतीय परम्परा बहुत भायी पर इसमें संस्कृत के श्लोकों को देख वह घबराए। खुसरो अरबी विद्वान थे। उन्होंने धु्रवपद में निर्थक शब्द ‘तन देदे ना’, ‘द्रे द्रे तनोम’ गढ़ कर तरह-तरह के हिन्दुस्तानी राग गाए। यही बाद में तराने हुए। 
मुझे लगता है, संस्कृित का अभिजात दक्षिण भारत के कलात्मक रूप में ही तो परिणत हुआ है। संगीत, नृत्य, चित्रकला आदि दक्षिण की समृद्ध कलाएं संस्कृत से ही शास्त्रीय हुई। आधुनिक मनोरंजन विधाओं का बहुत से स्तरों पर संस्कृतिकरण बाद में इन कलाओं ने ही किया। परन्तु बड़ी विडम्बना यह भी है कि आज के दौर में मनोरंजन का अर्थ पूरी तरह से हास्य से लिया जाने लगा है। सोचिए! हंसना ही क्या मनोरंजन है? हास्य मनोरंजन के एक पक्ष की स्थूल अभिव्यक्ति जरूर है पर यह पूरी तरह से मनोरंजन तो नहीं ही है। टीवी चैनल इधर यही कर रहे हैं। हंसाने के नाम पर दर्शकों को वहां निरंतर भोंडापन परोसा जा रहा है! माने वक्ट काटना है। कैसे भी कटे परन्तु वक्ट काटना क्या मनोरंजन है? वक्ट काटने के अर्थ में ही यदि मनोरंजन लें तो उसका परिणाम मन में उपजे क्षोभ, विषाद से अतिरिक्त कुछ न होगा। वक्ट कटे पर भौंडेपन से उपजे हास्य से नहीं, इस तरह से कि वक्ट से व्यक्ति ऊपर उठ जाए। मनोरंजन हो पर मन को रंजित करता। स्वस्थ मनोरंजन। कलाएं यही करती है। मन उनसे रंजित ही नहीं होता, सृजन के लिए निरंतर प्रेरित भी होता है। 
नाट्य, नृत्य, संगीत के ऐतिहासिक, पौराणिक, धार्मिक संदर्भ है। इन संदर्भों में जीवनानुभूतियां है। संस्कार हैं और है हमारी संपन्न संस्कृति का आधार। सोचिए! सांस्कृतिक संदर्भ खोकर आखिर कोई समाज कैसे आगे बढ़ सकता है! कालिदास ने रंगमंच को ‘चाक्षुस यज्ञ’ की संज्ञा दी थी। जयपुर में कुछ समय पहले के.एन. पणिक्कर के निर्देशित नाटकों का महत्ती समारोह हुआ। तभी उनके निर्देशन में कालिदास रचित ‘मालविकाग्निमित्र’ का आस्वाद किया था। ‘मालविकाग्निमित्र’ में नृत्य रस का जो बखान है, उसके संदर्भों से मुक्त होकर कलाओ की हमारी समृद्ध संस्कृति की चर्चा क्या की जा सकती है! 

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