Friday, July 12, 2013

रेखाओं में नदी संस्कृति का इतिहास


दृष्य अभिव्यक्ति का प्रभावी रूप है रेखांकन। बहुतेरी बार रेखाएं जो आकार ग्रहण करती है उनमें भले ही सब कुछ स्पष्ट नहीं होता फिर भी वहां दृष्य की अनंतता में सौन्दर्य छवियों को अनुभूत किया जा सकता है। माने कोई एक दृष्य नहीं उससे जुड़ा तमाम परिवेष वहां उद्घाटित होता है। मुझे लगता है, थोड़े में बहुत कुछ कहने का प्रभावी कला माध्यम है रेखांकन। स्मृतियों को दृष्य में रूपान्तरित करती रेखाएं कला में अनंत की खोज ही तो है। 
बहरहाल, अमृतलाल वेगड़ नर्मदा पद यात्राओं के शब्द सर्जक ही नहीं है बल्कि  रेखाओं के अद्भुत सौन्दर्य सृष्टा भी हैं। अभी बहुत समय नहीं हुआ, भोपाल में एक आयोजन पर जब उन्होंने नर्मदात्रयी की अपनी पुस्तकें भेंट की तो उनके रेखांकनों पर भी गहन संवाद हुआ। बाद में जब रेखाओं में उकेरे उनके पदयात्रा सौन्दर्य चितराम पर गया तो लगा,  नर्मदा और उसके तट पर बसे लोगों के सार्थक और जीवंत चित्रण उन्होंने रेखाओं से किए हैं। प्रकृति, व्यक्ति और क्षणों के दृश्यों में वह रेखाओं का सांगीतिक आस्वाद कराते हैं। उनके रेखांकनों की बड़ी विषेषता यह है कि वहां जनजीवन के बाह्य रूप की अपेक्षा उससे जुड़ी संवेदना के साथ जीवन से जुड़े सत्यों का अन्वेषण है। माने अपने रेखांकनों में उन्होंने नदी और उसके तट पर बसे लोगों का सांस्कृतिक इतिहास लिखा है। रेखाओं में संस्कृति का इतिहास आसान नहीं है। वही लिख सकता है जिसे संस्कृति के सूक्ष्म पहलुओं को अंवेरना आता हो। वेगड़जी इसे बखूबी करते हैं। संस्कृति, लोक संस्कृति और जीवन से जुड़े उसके संस्कारों की वह गहरी सूझ रखते हैं। इसीलिए तो अपनी नर्मदा पद यात्राओं में प्रकृति, व्यक्ति और वस्तुओं का सत्यान्वेषण कला की अपनी दीठ से उन्होंने किया है। मसलन यात्रा की एक स्मृति में छोटी पहाड़ी के एक दृष्य में रमते वह उसे पेपरवेट की संज्ञा देते हैं। उनका दृष्य वर्णन देखें, ‘...सारा दिन उस पहाड़ी पर रहे। उसका लघु आकार उसे एक विषेष जीवन्तता प्रदान करता था। यह पहाड़ी पेपरवेट जैसी लग रही थी। आस-पास के खेत कहीं उड़ न जाए, इसलिए उन पर रखा पहाड़ी पेपरवेट!’ 
दृष्य से साक्षात् और फिर उसकी यह अभिव्यंजना कला में डूबा कोई ऋषि ही कर सकता है। वेगड़जी इस दृष्टि के कलाऋषि हैं। उनका चित्रकार मन प्रकृति में रंगों की तलाष करता एक स्थान पर लिखता है, ‘...हरे रंग का तो समुद्र है चारों ओर। हरे रंग के कितने अखाड़े हैं! खेतों का हरा अलग। धान का खेत हरे रंग का जूना अखाड़ा है। रमतीला का पीला तो मुझमें अजीब सी उत्तेजना भर देता। उनके पीले खेतों से चलता तो लगता मैं वान गाॅग के खेत में ही जा रहा हूं।’ 
प्रकृति और जीवन के शब्द कहन की उनकी यह दृष्य लय ही उनके रेखांकनों समृद्ध करती रही है। नदी के साथ उससे जुड़े तमाम परिवेष को रेखाओं में सूक्ष्म दीठ देने वाले वह अद्वितीय कलाकार हैं। इसीलिए तो नर्मदा में कपड़े धोते, नर्मदा में स्नान करते, नर्मदा के पानी से सूर्य को अर्ग देती स्त्रियों के साथ ही वहां के पक्षी, वहां की धरा का सौन्दर्य उनकी अल्प उकेरी रेखाओं में भी पूर्णता के साथ अभिव्यंजित हुआ है। पदयात्रा से सृजित एक रेखाचित्र में मंडला से अमरकंटक के किसी दृष्य का रेखांकन है। चंद रेखाओं में उकेरी गयी पहाडि़यां। बल खाती नदी।...और उसका बहाव। रेखांकन नहीं रेखाओं की यह रूप गोठ है। माने कोलाज। 
  नदी और तट पर बसे लोगों की सभ्यता ऐसे ही उनके हर रेखांकन में बसी है। व्यक्ति रेखांकनों में वह संस्कृति का अनहद नाद करते है। यह ऐसे हैं जिन्हें देखते लगता है, आदिवासी समाज और उससे जुड़े संदर्भों की अनंत यात्रा पर हम निकल पड़े हैं। कुछ चित्र है जिनमें नदी में नहाने के बाद अपनी धोती सूखोती आदिवासी स्त्री, सर पर बोझा रखे चलती स्त्रियां, ताप सेकते-बतियाते, घर के आंगन में मांडणे लिपती औरतें हैं।... कहूं, नर्मदा पद परिक्रमा के उनके रेखांकन स्वयं में एक स्वायत्त कला रूप है। 


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