Friday, August 23, 2013

सुरों के रस का सारंगी गान


तत्वाद्य है सारंगी। करूणा, प्रेम, वात्सल्य, स्नेह, रूदन के साथ जीवन के तमाम रसों का नाद करता वाद्य। मानव कंठ सरीखा आलाप वहां है तो मींड और गमक भी वहां है। मुरकियांे के साथ खटका और तानें भी। माने कंठ से जो सधे, सारंगी उसे सजाए। कोई कह रहा था, अतीत का ‘सारिंदा’ सारंगी बन गया। ‘रावणहत्था’ से भी कोई इसे जोड़ता है। 
बहरहाल, यह जब लिख रहा हूं और पंडित रामनारायण की सारंगी के सुर ज़हन में बस रहे हैं। राग पीलू ठुमरी। सारंगी के स्वरों का जादू तन-मन को जैसे भीगो रहा है। ठुमरी के बोल की आवृतियां करती सारंगी। उल्टे-सीधे, छोटे-लम्बे गज। तानों में एक साथ कई सप्तकों की सपाट तान। सारंगी रच रही है दृश्य की भाषा। ठुमरी के रंग रच गए तो लो अब सारंगी के तारों पर पंडितजी ने राग जोगिया की तान छेड़ दी है। सारंगी जैस समझा रही है असार संसार का सार। राग मुल्तानी, किरवानी, मिश्र भैरवी और राग बैरागी भैरव! अतृप्त प्यास जगाते सारंगी के सुर। निरवता का गान। सब कुछ पा लेने के मोह से मुक्त ही तो करता है यह नाद! सुरों का अनूठा उजास है पंडितजी की सारंगी में। मन के अंदर तक घर करती है सारंगी की उनकी गूंज। सुनते लगता है, बीन और अंग के आलाप के साथ मन्द्र सप्तक से लेकर अतिसार सप्तकों तक वह सारंगी की बढ़त करते हैं। गज चलाना कोई उनसे सीखे! दोनों हाथों की अंगुलियों का संतुलित संचालन। सारंगी बजाते खुद भी वह जैसे खो जाते हैं और सुनने वालों को सुरों के समन्दर की जैसे सैर कराते हैं। एक लहर आती है, दूर तक बहा ले जाती है। दूसरी आती है और जैसे अपने में समा लेती है। भीगोती, पानी के छींटे डालती हुई। ...सच! पंडित रामनारायणजी की सारंगी बजती नहीं, गाती हुई हममें जैसे सदा के लिए बस जाती है।
पंडित रामनारायण जी उदयपुर में जन्में। और फिर बाद में मुम्बई में ही बस गए। सारंगी की शास्त्रीय पहचान का श्रेय उन्हीं को है।  कहें, वह नहीं होते तो सारंगी कब की हमसे विदा ले चुकी होती। पिता नाथूजी बियावत दिलरूबा बजाते पर  पंडितजी ने सारंगी अपनायी। उस्ताद वहीद खां से सुर, लय और ख्याल गायकी सीखी तो धु्रवपद को भी अपने तई साधा। आकाशवाणी में भी रहे पर सारंगी को स्वतंत्र पहचान दिलाने में नौकरी बाधा लगी सो छोड़ दी। वर्ष 1956 में पंडितजी ने मुम्बई के संगीत समारोह में पहली बार एकल सारंगी वादन किया। बस फिर तो देश-विदेश में उनकी सारंगी की धूम मच गयी। उस्ताद विलायत खां के साथ उनका एलपी रिकाॅर्ड आया। सारंगी के सुरों की वर्षा पहले पहल फिल्मों में उन्होंने ही की। याद करें ‘कश्मीर की कली’ का ‘दिवाना हुआ बादल...’ गीत। गीत की धुन में सारंगी के सुरों पर गौर करें। मन करेगा बस उन्हें गुनें। गुनते ही रहें। पंडितजी ने सत्यजीत राय की कुछेक फिल्मों के साथ तपन सिन्हा की ‘क्षुधित पाषाण’ का पाश्र्व संगीत भी दिया है।
बहरहाल, कुछ दिन पहले पंडितजी जयपुर में थे तो कलाकार मित्र विनय शर्मा और महेश स्वामी के साथ उनसे खुब बतियाया हुआ। लगा, सारंगी में ही नहीं, उनकी बातों में भी अद्भुत रस है। होटल की खिड़की से बाहर झांकते तरण-ताल पर उनकी नजर गयी। उसके कम पानी को देख वह कहने लगे, ‘...स्विमंगपुल में इतना चुल्लूभर पानी है कि कोई आराम से इसमें डूब मरे!’ उनका कहन इतना धीमा, गंभीरता लिये था कि औचक समझ ही नहीं आया। जब समझे तो हंसी के मारे बुरा हाल था। फिर से पंडितजी ने फरमाया, ‘लो...हम तो आपकी इस हंसी पर ही मर मिटे।’ 

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