Friday, August 9, 2013

लोक संस्कृति का गान

हरिमोहन भट्ट रेखाओ में सौन्दर्य की सर्जना करते हैं। लोक संस्कृति का गान करती उनकी रेखाएं जीवन की उत्सवधर्मी संवेदनाओं का नाद है। उनकी रेखाओं में रंग हैं, रूप है और है संवेदनाओं का आकाश। रेखाओं में सौन्दर्य का अन्वेषण करते भट्ट पारम्परिक प्रशिक्षित कलाकार नहीं है। वह रंगीन बालपोईन्ट पैन से उकेरते हैं रेखाएं। बाल्यकाल में कभी अपने लिखे को सजाने में इस कदर प्रवृत हुए कि बाद में तो उनका बालपोईन्ट पैन रेखाओं का सौन्दर्य संवाह ही बनता चला गया। अपनी कला में राजस्थान की उत्सवधर्मी संस्कृति में बिखरे भांत-भांत के रंगों के वह संवाहक हो गए। लोक संस्कृति में रचा-बसा उनका मन सर्जना में दृश्य ही नहीं बल्कि उसमें निहित संवेदना की बारीकियां की बढ़त करता है।
बहरहाल, कुछ दिन पहले ही हरिमोहन भट्ट के बालपोईन्ट पैन रेखाचित्रों का आस्वाद किया। लगा, रेखाओं में भांत-भांत के रंगों को घोलते वह दृश्य की हमारी संवेदना को ही नहीं बल्कि सुनने के हमारे माधुर्य को भी गहरे से छूते हैं। उनके रेखांकनों का आस्वाद करते सहसा ही राजस्थान के मांडणों की याद आती है। मांडणे सरीखे उनके रेखांकन बारिश के इस मौसम में अपने पंखों से रंगों की छटा बिखरते मोर की याद दिलाता है तो बरसती बूंदों की रिम-झिम के साथ आसमान में उभरते इन्द्रधनुष को भी औचक ही मन मे बसाता है। सांगीतिक आस्वाद कराती उनकी रेखाएं नृत्य करती हुई हममें प्रवेश करती है तो कभी गांव के उस परिवेश से भी हमारा अनायास साक्षात् करा देती है जिसमें मन बनावटीपन से कोसों दूर बस सहज सौन्दर्य का पान करता है। ज़हन में बचपन कौंधने लगा है।  तब शहर की चारदीवारी से दूर बड़ा सा बीकानेर के घर का हमारा आंगन हुआ करता था। आंगन के बीचोबीच उगा खेजड़ी का वृक्ष। त्योंहारों पर कच्चे आंगन पर गोबर पूतता। दादी चाव से आंगन संवारती। गैरू-गोबर से आंगन लीपती। इस लीपे पर फिर मांडणे मंडते। मनभावन मांडणे। मूढ़ से बनी घर की बड़े ओसार की दीवारें भी दादी के हाथों से तब अलंकृत होते देखता। अक्षर ज्ञान से कोसों दूर दादी रेखाओं में सधी माधुर्य की अनूठी लय अवंेरती। 
सोचता हूं, हरिमोहन भट्ट के बालपोईन्ट पैन से बने रेखाचित्र लोक मन में बसे ऐसे अलंकरण ही तो है! इनमें कहीं कोई बनावट नहीं है। जीव-जंतु, फल-फूल, प्रकृति और लोक आस्था के अनगिनत सुर। संवेदनाआंे को जगाते। हमसे बतियाते। इनमें रेखाओं का अद्भुत उजास है तो आत्मिक अनुभूतियां से जुड़े अनगिनत छलकते रसों के संदर्भ भी हैं। मुझे लगता है, लोक संस्कारों के सर्जनषील तत्वों को भट्ट शुद्ध व स्पष्ट रूप में हमारे समक्ष रखते हैं। वह बेल बूटों को इनमें सूक्ष्म उकेरते हैं तो बहुतेरी बार भारतीय शिल्प की गहराईयों में भी ले जाते दिखते हैं। अजन्ता की कलाओं का आस्वद यहां होता है तो मूगल चित्र शैलियों के अलंकरण तत्वों की सूक्ष्म दीठ भी यहां है। राजस्थान की राजपूत-मूगल शैली के साथ ही मिनिएचर तत्वों का अहसास ठौर-ठौर उनकी कला में है। सौन्दर्य से जुड़े मन के भावों के दृष्यों का अपने तई वह  आकाश ही तो रचते हैं! अलंकृत रेखाएं। कहीं कहीं वलयकार रेखाओं में सरल, सीधी रेखाओं का विलोप। मुल्कराज आनंद के शब्द उधार लेकर कहूं तो हरिमोहन भट्ट की बालपोईन्ट पैन  रेखाएं सौन्दर्य की सर्जना में बहुत से स्तरों पर ईष्वर की आषुलिपि है। रंग-बिरंगी रेखाएं मेंहदी सजे गौरी के हाथों की याद दिलाती उत्सवधर्मी हमारी संस्कृति का नाद भी तो करती है। लय का अनुसरण करती एक-दूसरे में समाती। एक दूसरी से ओत-प्रोत होती कब यह सौन्दर्य का आत्मरूप हो जाती हैं, कहां पता चलता है!


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