Friday, September 6, 2013

रेत राग रमा कमायचा

सरोद और सांरगी से कुछ-कुछ मिलता हुआ वाद्य है कमायचा। सुनेंगे तो मन करेगा गुनें। गुनते ही रहें। बहती हवा में रेत के धोरों में खड़ताल, ढोलक अलगोजा के साथ कमायचा बजे तो थार जैसे सजे। और थार के सौन्दर्य को अपने कमायचे में समाते धुनों का जो लोक साकर खां रचते, उसे चाहकर भी कहां कोई बिसरा सकता है।
सोचता हूं, अब जबकि साकर खां नहीं रहे, थार क्या वैसे ही सजेगा! यह साकर खां ही थे जिन्होंने कमायचे में रेत का हेत संजोया था। वह कमायचा बजाते और लगता रेत धोरों के भांत-भांत के रंगों को गाने लगी है। लोक संस्कृति में व्याप्त संस्कारों का संवाहक ही तो था उनका कमायचा। यह जब लिख रहा हूं, साकर खां के कमायचे से निकली मूमल, हालरिया, बनड़ा, घूमर, बायरो और भी न जाने कितनी-कितनी लोक धुनें ज़हन में बसने लगी है। लग रहा है, होले बहती हवा में उड़ती रेत के कणों से झरता उनका कमायचा मरूस्थल की प्यास का गान कर रहा है।...रेत की अनगिनत छवियां उकेरता। उनका कमायचा बजता तो पेपे खां की सुरनई भी मन के तार झंकृत करती। उनका कमायचा कभी विरह का रूदन करता तो कभी उत्सवधर्मी रंगों की छटा बिखेरता मन में अवर्णनीय उमंग, उत्साह का संचार करता। लगता यही कि कमायचा नहीं धोरे गा रहे हैं। मिट्टी की सौंधी महक में जो रचा-बसा था उनका कमायचा! 
बहरहाल, साकर खां पाकिस्तानी सरहद के पास बसे गांव हमीरा के थे। वह जब ग्यारह वर्ष के थे तभी पिता का देहान्त हो गया। पिता से विरासत में और तो कुछ मिला नहीं, कमायचा मिला। इस विरासत में लोक धुनों को उन्होंने अपने तई साधा। उसमें बढ़त की। उन्होंने जो धुने निकाली लोक में सजी वह शास्त्रीयता की धुने थी। यही कारण था कि देश-विदेश में राजस्थान के पारम्परिक लोक वाद्य कमायचा को बाद में उन्हीें के कारण अपार लोकप्रियता भी मिली। भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया तो केन्द्रीय संगीत नाटक अकादेमी, राजस्थान संगीत नाटक अकादेमी आदि से भी उनकी कला को निरंतर सम्मान मिलता रहा। अभी कुछ दिन पहले देश के सुप्रसिद्ध सारंगी वादक पंडित रामनारायणजी जब जयपुर में थे तो उनसे साकर खां के कमायचे पर भी संवाद हुआ। कहने  लगे, ‘साकर खां को सुना है। उसके कमायचे में लोक धुनों की आत्मीयता में खोने का मन करता था। राजस्थान के लोक संगीत को तो लंगा, मंागणियारो नें ही तो सहेजा है।’ 
कमायचा सारंगी की तरह गज से बजने वाला वितत् वाद्य है। आम शीशम की लकड़ी से गोलाकार तबली का इसका ऊपरी भाग खाल से मढ़ा होता है। मुझे लगता है, साकर खां ने राजस्थान के इस पारम्परिक वाद्य को सुदूर देशों तक पहंुचाया ही नहीं बल्कि रेत की धुनों से हर आम और खास का नाता भी कराया। याद पड़ता है, मरू महोत्सव में कभी उनके कमायचे से निकली मांड सुनी थी। लगा, धोरे विभोर हो अपने पास बुला रहे हैं। राजस्थान की जगचावी धुन ‘पधारो म्हारे देस...’ बज रही थी और लग रहा था कि राजस्थान के तमाम रंग सुनने वालों को भीगो रहे हैं।  रेत जैसे अपने हेत से रंगने की नूंत दे रही थी। होले-होले गज से छिड़े कमायचा के सुर मन में घर कर रहे थे। मुझे लगता है, यह साकर खां का कमायचा ही था जिनकी धुनें लोक से अपनापा कराती मन में यूं घर करती थी। रेत राग रमा ही तो था उनका कमायचा!

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