Friday, September 20, 2013

अतीत का सौन्दर्यान्वेषण

तमाम हमारी कलाएं सौन्दर्य का अन्वेषण है। कहें, मन के भीतर नया कुछ रचने, गढ़ने के लिए चलने वाली अकुलाहट। दैनिन्दिनी जीवन में जो कुछ हम देखते-सुनते हैं, क्षण-क्षण में उसमें परिवर्तन होता है। तेजी से बदलते इस समय की गति को पकड़ते नया जो रचा, वही तो कला है। पुराने पते झड़ते हैं, नए उगते हैं। प्रकृति का यही नियम है। सर्जन का सच भी तो यही है।

बहरहाल, यह जब लिख  रहा हूं, जीर्ण-शीर्ण स्टेम्प पेपर पर ठुकी रियासतों के अतीत से जुड़े राजस्थान की राजमुद्राएं दिखाई दे रही है। जयपुर, भोपाल, बूंदी, टोंक, अलवर, बीकानेर, उदयपुर राज्यों के एक आने, दो आने के स्टेम्प पेपर और उन पर ब्लाॅक्स की छपाई। स्याही के पैन से संस्कृत, फारसी, उर्दू, अरबी, के साथ साथ खास बीकानेरी ‘बाणिका’, मुरडि़या लिपि  और उस पर अंगूठे, अंगूलियों के लिए निशान। पर यह सब कैनवस का पाश्र्व है। इस पाश्र्व पर आम आदमी भी है। उसके जीवन से जुड़े सरोकार भी और इन्हें अंतर्मन संवेदना से भांत-भांत के रूपों मंे जिया है कलाकार मालचन्द पारीक ने। गणपति प्लाजा स्थित ‘समन्वय’ कलादीर्घा में पारीक की कला प्रदर्शनी ‘द स्टेम्प आॅफ लाईफ’ के अंतर्गत इस सबका आस्वाद करते यह भी लगा कि अंतःप्रक्रियाओं में यह कलाकार ही है जो कालातीत को समय के सर्वथा नूतन संदर्भ देने की क्षमता रखता है। 

मालचन्द पारीक ने पुराने जमाने में कोट-कचहरी के कार्यों, लेन-देन में प्रयुक्त होने वाले स्टेम्प पेपर को केन्द्र में रखते कैनवस पर आम आदमी के सपनों, उसके संघर्ष के साथ ही अदम्य जिजीविशा को प्रदर्शनी में अपने तई सांगोपांग रूपायित किया है। एक अदद घर का सपना यहां है। उच्च वर्ग, मध्यम वर्ग, ठेला ठेलने वाला, रिक्शा चलाने वाला या फिर मजदूरी करता श्रमिक-सबका सपना अपने घर का है। पुराना स्टेम्प पेपर आज की मुद्रा का प्रतीक है, और उस पर उकेरा व्यक्ति घर की चाह में भटकता आम आदमी।

सोचता हूं, मालचन्द कैनवस पर जीवन का रूपक गढ़ता कलाकार है!  इस रूपक में सौन्दर्य सर्जना के अंतंर्गत कला की हमारी लोक परम्परा को भी गहरे से संजोया गया है। मसलन ‘द स्टेम्प आॅफ लाईफ’ की एक कलाकृति में जलरंगों की प्रक्रिया में आदि जैन पुराण का मोहक चितराम है। पड़ की मानींद। पुराण कथा से जुड़े चित्रों का कोलाज। दूसरी और कलाकृतियां में स्टेम्प पेपर पर रिक्शे पर, ठेले पर, तांगे, बैलगाड़ी, टैम्पो पर बहुमंजिला इमारते ढोता आम आदमी है तो चाक से घर गढ़ता किसान भी है, बैण्ड वादक भी है और हां, सांप की पिटारी से सांप नहीं बीन बजाकर बहुमंजिला इमारत निकालता सपेरा भी है। कहीं स्टेम्प पेपपर को पाश्र्व में रखते तारों का जाल बुना गया है और उसमें उलझे पक्षियों का कलरव सुनाया गया है तो खण्डहर होता अतीत भी यहां गा रहा है। हवेलियों के ध्वस्त होते झरोखों में बीता अतीत कलाकृतियो में जैसे ध्वनित हो रहा है। माने रंग-रूप के साथ उनमें निहित संवेदना के अंतर्गत संगीत की अंर्तध्वनियां भी है।

मालचन्द बहुआयामी चित्रकार है। चित्रो की इस प्रदर्शनी में उसके मूर्तिशिल्प और एक बड़ा सा घूमता हुआ इन्स्टालेशन ‘मिरर-कर्टेन’ भी समय संदर्भों को अंवेरता देखने वालों को स्पन्दित करता है। तमाम मूर्तिशिल्पों के केन्द्र में टीवी डिश है। यह पेड़ के तने पर लगी है, झोपड़ी पर भी और सांची के स्तूप, पीरामीड और बैठने की कुर्सी तक में। माने कहीं कोई जगह नहीं बची है, जहां बुद्धुबक्शा की पहुंच नहीं हुई है।

कला के इन भांत-भांत के रूपों को देखते औचक ही यह भी अनुभूत होता है कि भिन्न माध्यमों में समय को रूपायित करते कलाकार अजीब सी अकुलाहट में जीता है। इस अकुलाहट में ही शायद वह माध्यम के साथ संदर्भों के अन्वेषण में कला की बढ़त भी करता है। कला में माध्यम के साथ संदर्भ की तलाश जरूरी भी है परन्तु अंतर्मन संवेदनाओं को रूपायित करते निरंतर उत्कृष्टता की ओर उन्मुख होना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। किसी कलाकार के भविष्य की राह आखिर इसी से तो तय होती है! मालचन्द इसी राह पर आगे बढ़ रहा है। आप क्या कहंगें!

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