कलाएं भीतर के हमारे सौन्दर्यबोध को जगाती है। रस की तन्मयता जो वहां है! माने यह कलाएं ही हैं जो सब कुछ भुलाकर हमें रस विलीन करती 'भावो भावं नुदति विषयाद इसीलिए तो कहा गया है। यानी भावों की प्रेरणा के पीछे जो भाव रह जाए। रागबन्ध।
बहरहाल, जवाहर कला केन्द्र में सुधीर वर्मा के चित्रों को देखना संगीत को सुनना, नृत्य से सराबोर हो जाना ही है।
रेखाओं की अदभुत लय अंवेरते वह मन को रससिक्त करते हैं। उनके चित्र सुन्दर नहीं रमणीय हैं। माधुर्य का आस्वाद कराते। मुझे लगता है, रंगों में घुली उनकी रेखाएं संगीत में आलाप लेने सरीखी धीरे-धीरे आगे बढ़ती है। भले ही चित्रों का उनका मूल आधार नायिका भेद है परन्तु इसमें सब कुछ सादृश्य है। माने रेखाएं आकृतियों को जीवन्त करती मोहक छटाओं का छन्द रचती है।
कुछेक चित्रों पर जाएंगे तो पाएंगे उनमें घोड़ों के साथ नायिका है। अलग से भी वह है परन्तु घोड़ों के साथ का लावण्य मन को मोहता है। नारी शुलभ चंचलता मंडी रेखाओं में यथार्थ की बजाय भाव-भंगिमाएं ही वहां प्रधान है। कहें, नारी नहीं उसके आत्मीय गुणों को रेखा दर रेखा वह रंगों में घोलते आप-हम से साक्षात कराते हैं। बिहारी सतसर्इ का आधार लेते कुछेक नारी चित्रों में पाश्र्व में उभरे पन्ने और उसमें मंडी लिपियां भी वहां है। सर्जना की अनवरत प्यास का संयोग निर्मित करती। रूप को अलंकृत करती।
सुधीर के नायिका चित्र दरअसल परकीया प्रेम की गंध में मानिनीरूप लिए हैं। बकौल बिहारी सतसर्इ वह धीर है, अधीर है ओर धीराधीर भी है। और अचरज! सुधीर नायिका भेद के इस वण्र्य को अपने तर्इ आविष्कृत करते रमणीयता का बोध जगाते हैं। उनकी नायिका की कमर, अधर, भाल, नेत्र आदि सभी कुछ इस कदर मधुर हैं कि वहां रेखाओं के पीछे अर्थ दौड़ता है। माने वहां आकृतियां है परन्तु उनमें निहित लय में रात, चांदनी, धूप, बरसात और ऋतु संबंधी तमाम अनुभूतियों भी हैं। मुझे लगतां है, ऋतुओं को यदि देखना हो तो सुधीर वर्मा के चित्र हमारी मदद करते हैं। यही क्यों? नृत्य, संगीत की सहोदरा भी है उनकी यह कला। प्रारंभिक रंग मूलत: पांच हैं। श्वेत, पीला, काला, नीला और लाल। इनकी संगति से ही दूसरे रंग उपजते हैं। सुधीर की रेखाओं में प्रारंभिक इन पांच रंगों के सुव्यवसिथत संयोजन में कलाकृतियां संगीत और नृत्य का आस्वाद ही तो कराती है। इसलिए कि सूर्य के सात घोड़ों, मयूर के साथ ही तमाम दूसरे बिम्ब, प्रतीकों के साथ रेखाओं में घूले रंगों में सुधीर के नायिका भेद चित्रों से संगीत निकलता है। लय का अनुसरण करती रेखाएं नृत्य को जीवंत करती देखने वालों में बसती भी है।
सुधीर के उकेरे घोड़ों पर ही जाएं। घोड़ों का उनका वेग रेखाओं की चंचलता लिए है। माने घोड़े हैं परन्तु उनमें निहित ऊर्जा माधुर्य से उपजी है। शकित की बजाय वह मन की उत्सवधर्मिता से जुड़ी है। सोचें, सूर्य नही हो तो सब कुछ निस्तेज नहीं हो जाएगा! इसीलिए कहूं, सुधीर की आकृतियां भीतर के हमारे रिक्तपन या कहें निस्तेजपन को दूर करती है। हुसैन ने कभी 'बूंदी की नायिका शीर्षक से एक चित्र उकेरा था। सुधीर के नायिका चित्रों का आस्वाद करते न जाने क्यों वह औचक ही ज़हन में उभरा है। माने सुधीर की रेखाओं में हुसैन की एप्रोच भी है और हां, पिकासो की रेखाओं के वेग का संवेग भी। सादृश्य में रंग घूली रेखाओं में लावण्य के चितेरे तो वह हैं ही। इसीलिए तो सौन्दर्य नहीं रमणीयता का बोध कराते वह मन को रमाते हें। क्षण क्षण में रेखाओं का नव रूप दिखाते।
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