नादब्रह्म की उपासना है ध्रुवपद।
संगीत के सप्तस्वरों का आदिरूप नादब्रह्म ओंकार ही तो है। ओंकार में शब्द भी है और
स्वर भी। कहते हैं, सृष्टि की
उत्पति इस नादब्रह्म से ही है । बहुश्रुत पद भी है, प्रथम आदि शिव शक्ति नादे परमेश्वर।’ इसीलिए तो कहते हैं, नाद से उत्पन्न रस ही संगीत है। और नाद की
रहस्यमयी महिमा और संगीत शास्त्र से संबद्ध विषय का सांगोपांग कहीं है तो वह ध्रुवपद
में ही हैं। ध्रुवपद को ज्ञान की परम्परा से शायद इसीलिए अभिहित किया गया है।
बहरहाल, जवाहर कला केन्द्र में ध्रुवपद संगीत
समारोह में भाग लेते संस्कृत के कहन ‘नादाधीनं जगत्’ को जैसे गहरे से
अनुभूत किया। सच! असार जग का सार कहीं है तो वह संगीत में ही है। ध्रुवपद-धमार से
जुड़े कलाकारों को सुनते लगा, संगीत बाहरी ही
नहीं अंतर के सौन्दर्य का भी संवाहक है। समारोह में सुना तो और भी कलाकारों को पर डॉ
मधु भट्ट तैलंग का ध्रुवपद मन में अभी भी गहरे से बसा है। लयकारी और सांसो पर उनका
गजब का नियंत्रण है। गान में आलाप की साधना और स्वरों पर विलक्षण अधिकार और हां, गायकी
की उनकी निरंतरता में शब्दों से जुड़े संस्कारों की ध्वनि ओप भी विरल है। जवाहर
कला केन्द्र में उस दिन बूंदा-बांदी हो रही थी। अंदर प्रेक्षागृह में मधुजी
जब गाने लगी तो उनका गान भी जैसे भिगोने लगा। दुरूह होते हुए भी गान का सहज निभाव।
गमक और मींडयुक्त उनका आलाप। लय वैचित्र्य के अंतर्गत उपज, बोलबांट, दुगुन-तिगुन आदि की विभिन्न लयकारियां।
कोई कह रहा था, ध्रुवपद महिलाओ का गान नहीं है। गान में
फेफड़ों पर जोर जो पड़ता है! दमदार और खुली आवाज से यह जो सधता है। भला, महिला स्वर में ध्रुवपद हो सकता है! शायद
इसी सोच से ध्रुवपदको कभी मर्दाना गान कहा गया। इसका मतलब मधु भट्ट अपवाद हैं।
ध्रुवपद को उन्होंने अपने तई साधा है। स्वर, लय पर पूर्ण अधिकार के साथ। वह गाती है तो लगता है, ध्रुवपद
अपनी पूर्णता के साथ हृदय के अंतरतम में प्रवेश करता है। उनके स्वरों में सौन्दर्य
का उजास भी है तो बेलौस खुलापन भी। स्वर माधुर्य के साथ काव्य का वह सुंदर प्रयोग
करती है। विशेष लयकारी में वह गाने लगी थी, ‘घन घुमण्ड चण्ड प्रचण्ड...’। झंकृत होने लगे मन के तार। लगा, संगीत के समुद्र की अतल गहराईयां नापते हैं उनके सुर। नाभि से उठता
नाद। सच! सुरों की दुरूह साधना में वह ध्रुवपद को गहरे से जीती कलाकार हैं। आलाप
के साथ स्वरों पर विलक्षण अधिकार लिए वह जब गा रही थी तो, अंतर से ध्वनित होती वाणी से ही जैसे
साक्षात् हो रहा था। गमक में सुरों की अद्भुत धमक। सुनते हुए लगा, दूर से आते सुरों में वह अनंत की सैर
कराती है।
उनका आलाप सुनते यह भी
लगा, होले-होले नदी, नाले, पर्वत, गली, संकड़ेपन के सफर में लय के साथ एक-एक कर
आगे बढ़ते जा रहे हैं सुर। राग में रूप की खोज। मुझे लगता है, सधे सुरों में व्यक्ति अपने होने की तलाश
कर सकता है। यह संगीत का ही सामर्थ्य है कि वह व्यक्ति को वहां ले जाता है, जहां चाहकर भी कोई जा नहीं सकता। सधे सुर
ही तो करते हैं अनंत की चाह की राह आसान। ध्रुवपद गाने वाले कलावन्त कहे जाते हैं।
माने कला के ज्ञाता। ज्ञान का अथाह सिलसिला ही तो है ध्रुवपद। ...और ऐसे दौर मे जब
ध्रुवपद शनैः शनैः हमसे दूर होता जा रहा है, एक महिला गायिका गान की उस महान परम्परा से हमें जोड़े हुए हैं। अब
बताईए, मधु भट्ट के होते, है कोई जो यह कहे-ध्रुवपद पुरूषों का ही गान
है!
2 comments:
हमारी पुरानी मित्र मधु जी की गायकी का यह संवेदनशील विश्लेषण मन को छू गया. आभार!
मधु जी का गायन सचमुच विलक्षण है-आप की यह टिप्पणी सार्थक!!
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