Friday, October 18, 2013

पंचम वेद की दृश्य संवेदना

प्रदर्शनकारी कलाओं में नाटक ही वह विधा है जिसमें तमाम दूसरी कलाओ का उत्स है। चार वेदों के बाद पांचवे वेद के रूप में इसीलिए नाटक ही अभिहित है। पर इस समय हिन्दी नाटको के साथ विडम्बना यह है कि पर्याप्त मात्रा में खेले जाने के बावजूद दर्शकों का हर ओर टोटा है। भले यह कहें कि सिनेमा, टीवी और दूसरे माध्यमों के कारण ऐसा हुआ है परन्तु बड़ा कारण क्या यह नहीं है कि अच्छे नाटकों के प्रदर्शन के साथ प्रेक्षागृह में दर्शकों को उन्हें दिखाने के आग्रह गौण हो रहे है! कुछ समय पहले पणिक्कर नाट्य समारोह जब हुआ तो बावजूद संस्कृत और कन्नड़ भाषाओं में नाट्य प्रस्तुतियों के प्रतिदिन ही रवीन्द्र मंच दर्शकों से खचाखच भरा रहा। 
बहरहाल, नाटक द्विज है। माने दूसरा जन्म। जो बीत गया है, उसे फिर से मंच पर जीवन्त करने की कला। जीवन से जुड़े तमाम रंग जो वहां होते हैं! अंतर्मन संवेदनाओं का आकाश लिए। रवीन्द्र मंच स्वर्णजयन्ती समारोह में अशोक राही के निर्देशन और अभिनय में ‘सेल्विन का केस’ नाटक देखा था। लगा, राही नाटक के मर्म में जाते उसमें निहित तमाम संभावनाओं को अपने तई जीते हैं। ‘सेल्विन का केस’ का मंचन दुरूह है।  कहानी रोचक है पर बदलते दृश्यों में बार-बार फ्लेश बैक में ले जाती हुई। सिनेमा में यह सुविधा है कि वहां एक ही समय में अनेकों कालखंड दिखाए जा सकते हैं। दृश्य परिवर्तित होते वहां सैकण्ड लगते हैं पर मंच पर यह कैसे संभव हो! पर राही ने इसे संभव किया। नाटक में एक हत्यारे को निर्दोष जान ख्यात लेखक लियोनार्ड लंडन मानवाधिकार से जुड़ी लेखकीय दलीलों से हत्या के जुर्म से उसे बरी करा देता है। उसे इसके लिए अपार यश और नोबल पुरस्कार तक मिलता है। बाद में लंडन को पता चलता है कि जिसे उसने बचाया वास्तव में वही खूनी था। अब क्या किया जाए! नाटक लेखक का संघर्ष, द्वन्द, पीड़ा, विडम्बना के मध्य संवेदना की सूक्ष्म अभिव्यंजना है। राहीजी के नाटक पहले भी देखे हैं पर मुझे लगता है, इधर उन्होंने अपनी जो रंगभाषा ईजाद की है वह अद्भुत है। यह ऐसी है जिसमें रंगमंच से जुड़े बाहरी आवरण नहीं बल्कि वह स्वयं और उनका अभिनय प्रधान है। प्रदर्शन में खुलेपन के साथ सहजता। ऐसी जिससे दर्शक सीधे मंच से जुडें। 
माना यह जाता है कि थिएटर में स्थानीय संदर्भ डालने से दर्शक अधिक उसका हिस्स बनते हैं परन्तु राही अपने रंगकर्म में इस मिथक को तोड़ते हें। ‘सेल्विन का केस’ ही लें। अमूमन ऐसे नाटकों में प्लेबैक थिएटर होता है। माने कहानी दर्शक को सुनाई जाती है ताकि वे स्वयं ही अपेक्षित निर्णय पर पहुंच जाएं। परन्तु राही ने कहानी से नहीं अपने अभिनय से यह संभव किया कि वह दर्शको को प्रभावी रूप मंे संप्रेषित हो जाएं। अनुभूतियों और भीतर के द्वन्द को वह भाव भंगिमाओं से व्याख्यायित करते चरित्र में रमते हैं। हां, निर्देशक के रूप में उनके पास दृश्यों की संगत की भी प्रभावी दीठ है। इसीलिए फ्लेश बैक दृश्यों में अतीत का वर्तमान से नाता कराते वह कहीं कोई अवरोध नहीं आने देते। यही तो किसी नाटक की बड़ी विशेषता होती है।
मुझे लगता है, रंगमंच मूलतः अभिनेता का ही माध्यम है। इसलिए कि वहां चरित्र को जीते वह अपना स्पेस तलाशता एक प्रकार से उसमें अपने को घोल देता है। स्वयं की सीमाओं को लांघते हुए। यही उसका द्विज है। जो इसे साध ले वही तो होता है सच्चा अभिनेता। तो कहें, इस दीठ से अशोक राही सधे हुए अभिनेता, निर्देशक हैं!

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