Saturday, October 12, 2013

संस्कृति के सौन्दर्य चितराम

संस्कृति माने जीवन से जुड़े संस्कार। स्वाभाविक ही है, इसमें विचार, सूक्ष्म कल्पनाएं, भावनाएं आदि सभी कुछ के संस्कार निहित हैं। जब कभी किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम का हिस्सा होता हूं, लगता है वहां प्रदर्शित-ध्वनित हमारी अनन्तरूपा संस्कृति से ही साक्षात् हो रहा होता हूं। उस संस्कृति से जो साहचर्य के गुणों से संपन्न है।  
बहरहाल, बिड़ला सभागार में कुछ दिन पहले पावरग्रिड कारपोरेशन आफ इण्डिया द्वारा क्षेत्रीय सांस्कृतिक प्रतियोगिताएं आयोजित की गई थी। पंजाब, हरियाणा, गुजरात, राजस्थान, उत्तराखंड और ऐसे ही तमाम दूसरे प्रांतो से जुड़े उपक्रम के कार्मिक और उनके परिजन कलाकारों ने इसमें अपनी प्रस्तुतियां दी। प्रतियोगिता निर्णायक की भूमिका के रूप में भाग लेते संकट मेरे समक्ष यह था कि बेहतरीन प्रस्तुतियों में से कैसे किन्हीं तीन उत्कृष्ट प्रस्तुतियों को छांटा जाए। इसलिए कि पंजाब से आए दल ने भांगड़ा में खेतों में होने वाले श्रम के महत्व का सांगोपांग चितराम किया था तो उत्तराखंड के कलाकार दल ने हाल ही आयी वहां की त्रासदी को जीवंत करते भगवान शिव का अद्भुत नृत्य प्रस्तुत कर सभागार को सम्मोहित सा कर दिया। आगरा के दल ने भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं को जीवन्त किया तो बल्लभगढ़, कानपुर, लखनऊ से आए कलाकारों ने अपने-अपने क्षेत्र की संस्कृति जुड़ी नृत्य, नाट्य प्र्रस्तुतियां दी। राजस्थान के दल ने उत्सवधर्मी राजस्थान के विविध रंगों को अपनी प्रस्तुतियों में गहरे से जिया। संस्कृति से जुड़ी इन तमाम प्रस्तुतियों का आस्वाद करते निर्णय के वक्त यह भी अनुभूत किया कि देश-काल-परिवेश से उत्पन्न विभिन्नताएं हमें भिन्न करने की बजाय एकसूत्रता के धागे में पिरोती है। यह भी कि यह वैविध्यता से सराबोर हमारी संस्कृति के ही रंग है जिनमें खंड सौन्दर्य का भी विराट दृश्यगत होता है। शायद इसलिए कि वहां रमणीयता है। क्षण क्षण में नवीन जान पड़ती रमणीयता।
सांस्कृतिक प्रतियोगिता में देश के विविध भागों से आए सांस्कृतिक दलों की प्रस्तुतियों में रमते हुए यह भी लगा कि संस्कृति समाज को मानवीय मूल्यों से जोड़ती है। ऐसा है तभी तो सरकारी उपक्रम के वह लोग जो निरंतर एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरित होते रहते हैं परन्तु जहां रहते हैं, वहां के परिवेश में रच-बस जाते। उनके इस अपनापे से ही संवेदना के मूल्य फिर उनमें जगते हैं। मसलन राजस्थान मंे पदस्थापित कार्मिकों के सांस्कृतिक दल की प्रस्तुति को ही लें। राजस्थान की लोक संस्कृति से सीधे उनका कोई सरोकार जन्मजात नहीं रहा है परन्तु यहां रहते उन्होंने राजस्थानी संस्कृति को जैसे आत्मसात कर लिया। श्रेष्ठ तो श्रेष्ठ ही होता है सो अपने प्रांत की प्रस्तुति को प्रथम घोषित करने के संकोच के बावजूद निर्णय तो यही करना था! पर इस निर्णय मंे नहीं जाए तो भी यह कहा जा सकता है कि स्थान-विशेष  के नहीं होते हुए भी हर सांस्कृतिक दल ने वहां की संस्कृति से अपने को जोड़ा ही। पावरग्रीड के महाप्रबंधक एच.के.मलिक और उप महाप्रबंधक उपेन्द्र सिंह से संवाद हुआ तो यह भी पता चला कि सांस्कृतिक तैयारियों के लिए बाकायदा काॅरपोरेशन राष्ट्रीय स्तर पर बजट प्रावधान करता है। यही नहीं इस बजट के अंतर्गत कार्मिकों के परिजनों को प्रस्तुतियों का अवसर मिलता है। एक साथ मिल-बैठ बतियाने का मौका भी। माने कार्मिक के साथ उसके परिवारजन भी संस्कृति के विविध रंगों से अपने आप ही रंगते हैं। संस्कृति के सरोकारों का यह श्रेष्ठतम उदाहरण है। राजकीय सेवा में कार्यरत कार्मिक और उसके परिजनों को यदि संस्कृति से जुड़े सराकारों के श्रेष्ठतम प्रदर्शन की भावना से मंच पर आने के अवसर मिलते हैं, तो बहुत से स्तरों पर समाज में क्षीण होते जा रहे सांस्कृतिक मूल्यों का बिगसाव हो सकता है। आखिर, समय की बड़ी जरूरत आज यही तो है!   


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