Friday, December 6, 2013

कलाओं में गूंथे जीवन के मर्म


कलाएं अंतरतम विचार, भावों का रहस्योद्घाटन है। मुंशी  प्रेमचन्द की कहन कला को ही लें। कहानी विधा के रूप में वहां साहित्य प्रधान है परन्तु कहानियों के मर्म में उतरेंगे तो पाएंगे कहन में जीवन से जुड़े सरोकार यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरे पड़े हैं। भाषायी अदाकारी में जीवन से जुड़े मर्म की तलाश  ही तो है उनकी कहानियां!  लूंठी-अलूंठी दृष्टि-संपन्न्ता में वहां पूरी की पूरी एक विचारधारा समय का सच उघाड़ती हममें जैसे बतियाती है। 
बहरहाल, यह सच है कि कहानियां जीवन को बयां तो करती है परन्तु जीवन नहीं हो सकती। जीवन तो कलाओं से ही है। इसीलिए तो कहते हैं-संगीत, नृत्य, चित्र और नाट्य जीवन को रंजित ही नहीं करते गहरे से बंया करते हैं। यह बात इसलिए कि कुछ दिन पहले प्रेमचन्द की एक कहानी का नाट्य रूपान्तरण देखा था।  लगा, कहानी को मंच देकर उसे जीवन्त करने की कला नाट्य से ही उपजी है। याद पड़ता है, व्यवस्था प्रसूत विसंगतियों पर लिखी उनकी कहानी ‘नमक का दरोगा’ विद्यालयी दिनों में ही पढ़ी थी। कथा में प्रेमचन्द द्वारा वेतन को पूर्णमासी का चांद की उपमा देकर महिने में एक बार ही दिखने की संज्ञा आज भी कहां भूल पाया हूं। पढ़ने के बाद कहानी के इस तरह के संवाद ज़हन में निरंतर कौंधते हैं। कुछ दिन पहले इस कहानी के नाट्य रूपान्तरण का आस्वाद करते इसमें निहित घटनाओं का दृष्टा भी बना। 
कहानी का नाट्य रूपान्तरण और प्रस्तुति सिद्धहस्त नाट्यकर्मियों ने नहीं करके राजस्थान पुलिस अकादेमी के प्रेक्षागृह में वहां के प्रशिक्षुओं ने किया। पुलिस अकादेमी के निदेशक बी.एल. सोनी के आमंत्रण पर उनके साथ इस कहानी का नाट्य आस्वाद करते लगा, प्रेमचन्द के कहन को कला में पात्रों ने गहरे से जिया है। पुलिस सेवा के प्रशिक्षुओं ने कहानी के मर्म में उतरते नाट्यकला से जुड़ी संवेदनाओं को जैसे आत्मसात किया था। ‘नमक का दरोगा’ कहानी के केन्द्र में ईमानदारी और बेईमानी की ताकत है। ईमानदार पात्र वंशीधर और जमींदार पंडित अलोपीदीन  इसके मुख्य पात्र है। कहानी में अच्छाई की हार के बावजूद अंततः अच्छेपन के सम्मान के मार्मिक प्रसंगों की जीवन्त और मार्मिक नाट्य प्रस्तुति ने मन में कुछ सवाल भी पैदा किए। मसलन पुलिस प्रशिक्षण अकादेमियों में संबद्ध प्रशिक्षण के साथ ही प्रशिक्षुओं में निहित नैसर्गिक प्रतिभाओं को तराषने के अवसर दिये जाएं तो वहां बगैर किसी उपदेष, व्याख्यान के ही मानवीय गुणों का विकास किया जा सकता है। 
अमूमन देखा यह गया है कि प्रशिक्षण अकादेमियों में अधिकारी अपनी नियुक्ति को लेकर खास कोई उत्साहित नहीं होते हैं। ऐसे में प्रायः प्रशिक्षण औपचारिकताओं की भेंट चढ़ता प्रशिक्षुओं को भविष्य के अपने कार्य के प्रति जोश  नहीं जगाकर कार्य आरंभ करने से पहले ही उसके बोझ का ही निरंतर अहसास कराता है। स्वाभाविक ही है कि प्रशिक्षण उपरान्त पुलिस के सामाजिक सरोकारों के नतीजों में स्वाभाविक मानवीय गुणों का लोप ही तब अधिक दिखाई देता है। इस दीठ से विचार यह भी आया कि क्यों नहीं आवश्यक  प्रशिक्षण  के साथ कलाओं से जुड़े सरोकार भी प्रशिक्षण का हिस्सा हों। अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक और राजस्थान पुलिस अकादेमी के इस समय के निदेशक बी.एल. सोनी की पहल इस दृष्टि से उदाहरण बन सकती है। वह स्वयं मानवीय संवेदनाओं से लबरेज व्यक्तित्व है, इसलिए उनकी पहल से ही अकादेमी में साहित्य और कलाओं से जुड़े सरोकारों की इस तरह की पहल हुई है। क्या ही अच्छा हो, तमाम दूसरे प्रशिक्षण  संस्थानों में विषय संबद्ध प्रशिक्षण  के साथ कलाओं से जुड़े सरोकारों को इसी तरह से जोड़ा जाए। 
यह सही है,प्रशिक्षण  व्यक्ति को संवारकर दक्षता प्रदान करता है परन्तु कलाओं से जुड़े सरोकार प्रषिक्षण में सम्मिलित होंगे तो व्यक्ति जीवन से जुड़े गुणों का पाठ भी स्वतः ही कर सकेगा। रोबोटी होते दौर में संवेदनाओं का वास आखिर कलाएं ही करा सकती है।  


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