Friday, December 20, 2013

लोक की अनूठी शिल्प -चित्र विरासत

यह जानना सुखद है कि इस बार गणतंत्र दिवस पर राजधानी दिल्ली में होने वाली परेड में प्रदेश के ख्यातनाम कलाकार हरशिव शर्मा निर्मित कावड़ कला की झांकी प्रदर्शित  होगी। कावड़ कला राजस्थान की समृद्ध लोक धरोहर है। ऐसे दौर में जब हम अपनी परम्पराओं को विस्मृत करते जा रहे हैं, राष्ट्रीय पर्व लुप्त होती कलाओं को सहेजने का जैसे संदेष ही देता है। 
बहरहाल, कावड़ लोक की अनूठी शिल्प -चित्र विरासत है। कावड़ माने धार्मिक, ऐतिहासिक और लोक कथाओं में गुंफित शिल्प का चित्रघर। डिब्बेनुमा काष्ठ आकृति जिसकी दरो-दिवारों पर कथाओं का मनोरम चित्रण। कावड़ में गाथाओं को बुना जाता है और फिर जब यह तैयार हो जाती है तो बुने को बांचते हुए गुना भी जाता है। काष्ठ निर्मित कलात्मक रूपाकारों में ईसर, तोरण, बाजोट, मुखौटे और देवी-देवताओं की प्रतिमाएं भी होती है। कविता के छंद की भांति क्रमबध मंडे चित्र और चमकदार रंगों का सौन्दर्य वहां प्रधान होता है। एक रंग दूसरे का पूरक बनता इसीलिए मन को वहां भाता है। कावड़ में षिल्प की गढ़न के साथ चित्रांकन की सूक्ष्म दीठ होती है।  कहें,  वास्तु और शिल्प का मेल है कावड़। परत दर परत कपाटों से खुलता है चित्रों का कथा कोलाज। कावड़ बांचने वाले कपाट खोलते इसे ही बांचते हैं। यह ठीक वैसे ही है जैसे आप किसी कलादीर्घा की वर्चुअल सैर कर रहे हैं। विविध कपाटों में परत दर परत मनोरम चित्रों के जरिए प्रभु की झांकी के पाट खुलते बंद होते धार्मिक कथा को यहां जीवंत करते हैं। इसीलिए कहें, कावड़ चलता फिरता देवघर है। 
कहते हैं, कावड़ कला की शुरूआत घर पर तीर्थ पुण्य प्रदान करने की सोच से कभी हुआ। ऐसे लोग जो तीर्थ नहीं जा पाते, प्रभु स्वयं पहुंचकर कावड़ के जरिए उन्हें तीर्थ लाभ देते। कावड़ के पाट खुलने का अर्थ ही है, पुण्य की प्राप्ति। उसे भी जो कावड़ चित्र कोलाज देखता है और उसे भी जो कावड़ बांचता है। पड़ की तरह कावड़ बांचते भाट मोर पंख का स्पर्श  कराके कावड़ के पाट खोलते-बंद करते ही कथा पूरी करता है। सभी प्रकार के कपाट खुलने पर अंत में राम-सीता के दर्शन होते हैं। कथा की इस पूर्णता के साथ ही आरती के साथ कावड़ पूरी हो जाती है। बैलगाडि़यों पर सजी-संवरी कावड़ कभी गांव-गांव, शहर-शहर  घूमती। 
बहरहाल, कावड़ डेढ़ से दो इंच की भी होती है और बीस फीट की बड़ी भी होती है। प्रायः यह अरडू, धाक, धोरनी, खिरनी, आम की लकड़ी से बनती है। पर इधर घरों में सजावट के लिहाज से सागवान से भी निर्मित होने लगी है। गोपीचंद-भरतरी, रामायण, महाभारत, लोक देवी-देवताओं ऐतिहासिक कथाओं के साथ ही इधर प्रयोगधर्मिता के चलते सम-सामयिक संदर्भो के चित्र भी कावड़ में बनने लगे हैं। रंग जो प्रयुक्त होते हैं उनमें लखारी यानी लाल रंग प्रमुख होता है। फिर इसमें हरतल यानी हरा, प्यावड़ी यानी पीला, काजल यानी काला आदि रंग मिलाए जाते हैं। आवश्यकतानुसार रंगों को गोंद  मिलाकर घोंटा लगाया जाता है। घोंटा यानी इंटाला। सूखने पर फिर से उसमें गोंद मिलाकर विविध पारम्परिक रंगो से क्रमवार कथाओं का चित्रण होता है। कथा चित्रों को सजाने के लिए मांडणे तथा अन्य अलंकरणों में लोक सौन्दर्य के चितराम भी काष्ठ पर मांडे जाते हैं। कहते हैं, कावड़ कला का उद्गम चित्तौड़ के बस्सी गांव से हुआ। वहां के रावत गोविन्ददास ही पहले पहल कावड़ कलाकार प्रभातजी सुथार को 1652 में मालपुरा टोंक से लेकर आए थे। उन्होंने तब बहुतेरी काष्ठकलाकृतियां बनाकर  रावत गोविन्ददास और महाराणा मेवाड़ को भेंट की। बस्सी काष्ठ कला का आज भी गढ़ है।...वहीं जन्मी जगचावी लोक कला कावड़ के उजास से इस बार पूरा देष नहाएगा।


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