Friday, December 13, 2013

सांस्कृतिक नीति के लिए हो चिंतन

कलाओं का मूल आधार संस्कृति है। जीवन से जुड़े संस्कारों की नींव संस्कृति से ही तो तैयार होती है। साहित्य, संगीत आदि कलाएं संस्कृति का ही रूप है और हमारा आंतरिक इनसे ही तो उद्घाटित होता है। परन्तु हमारी जीवन पद्धति और मूल्य भी तो संस्कृति का ही हिस्सा है। स्वाभाविक ही है कि संस्कृति प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनिवार्य है। या कहें उसमें हरेक की भागीदारी जरूरी है।
इस समय की बडी चुनौती तेजी से खत्म होते जा रहे जीवन मूल्य ही है। बड़ा कारण इसका संस्कृति के जीवंत मूल्यों से निरंतर हो रही हमारी दूरी भी है। प्रदेश में नई सरकार का आगमन हुआ है। बहुत सारे कार्य आने वाले समय में इस सरकार के जिम्मे है परन्तु संस्कृति को जीवन के व्यापक संदर्भों से जोडने की पहल की दिशा में यदि सर्वोच्च प्राथमिकता से कार्य हो तो दूसरे कार्यों में इससे अपने आप ही शुरूआत हो जाएगी। सरकारी अकादमियां और संस्थाएं सांस्कृतिक, साहित्यिक उन्नयन का कार्य कथित रूप में करती भी है परन्तु उनकी प्राथमिकताओं में संस्कृति से जुड़े पहलुओं का स्थूल रूप भर है। यानी साहित्य अकादेमी साहित्य के लिए, संगीत नाटक अकादेमी संगीत, नृत्य और नाट्य के लिए, ललित कला अकादेमी प्रदर्शनकारी कलाओं के लिए कार्य करती है परन्तु संस्कृति इनसे ही नहीं है। संस्कृति समुदाय के आचरण से है। संस्कृति मनुष्य का व्यवहार और जीवन जीने का ढंग है। जैसे बीज हम बोएंगे-फल वैसा ही मिलेगा। इस दीठ से संस्कृति भविष्य की नींव तैयार करती है। 
सांस्कृतिक आयोजन श्रव्य, दृश्य से जुड़े होते हैं परन्तु सांस्कृतिक चेतना के अंतर्गत संस्कृति व्यापक संदर्भों के साथ जीवन को पोषित करती है। स्वाभाविक ही है कि इसके लिए सरकार की दृढ़ इच्छा शक्ति से ही कार्य हो सकता है। नई सरकार सर्वोच्च प्राथमिकता रखते हुए इस ओर पहल करे तो बेहतर परिणाम सामने आ सकते हैं। और फिर संस्कृति और सत्ता को अलग नहीं किया जा सकता। राज्य में सरकार को जो अपार जनमत मिला है, उसकी भी मांग शायद यही है कि राज्य की अपनी एक सांस्कृतिक नीति बने। संस्कृति मूल्यों की सृष्टा और संपोषक जो है! साहित्य और कला अकादमियों के गठन और वहां पर अध्यक्ष, सदस्यों के मनोनयन या फिर किसी तरह के साहित्य, कला उत्सव करने से संस्कृति पोषित नहीं होती। साहित्य और कला के साधनों और सुविधाओं का विकास तो एक बात है परन्तु इससे भी बडी जरूरत यह है कि कलाएं अभिजात या फिर सीमित वर्ग तक की पहुंच के साथ तमाम जनता तक पहुंचे। स्वस्थ और दीर्घकालीन नीति यदि संस्कृति की बनती है तो उसमें साहित्य और कलाओं का ही नहीं व्यक्ति की सोच बदलने तक की ताकत है। यह बड़ी बात है पर पहली आवश्यकता तो अभी यही है कि प्रदेश की अपनी सांस्कृतिक नीति हो, ऐसी जिसमें साहित्य और कलाएं व्यापक संदर्भों से जुडे। 
साहित्य और प्रदर्शनकारी कलाओं में जो मठाधीश लोग हैं, उनकी बजाय सर्जन के सरोकारों से जुडे मूल लोगों को जोडते हुए, उनसे परामर्श करते हुए राज्य की सांस्कृतिक नीति बनायी जाए। ऐसी सांस्कृतिक नीति जिसमें मायड भाषा राजस्थानी के लिए कार्य हो, जिसमें संगीत, नृत्य चित्रकला और खासतौर से लोक कलाओं का जमीनी स्तर पर संरक्षण हो। संस्कृति की जीवंतता किससे  है? अंतर्विरोधों की पहचान से ही तो! अच्छे-बुरे की समझ से। इसलिए जरूरी यही है कि पूर्वाग्रहों से मुक्त होते हुए हम एक सुनियोजित सांस्कृतिक नीति के तहत सांस्कृतिक हों। संस्कृति जिससे जीवंत हो जीवाश्म न बने। आखिरकार तमाम हमारी कलाओं और दर्शन पर संस्कृति का ही तो प्रभाव रहता है। वह समृद्ध होगी तो हम भी समृद्ध-जीवंत रहेंगे। सरकार बदली है, संस्कृति के संबंध में यह चिंतन तो हो ही। आम जन की अपेक्षा यही है।

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