Friday, January 3, 2014

परम्परा, आधुनिकता और प्रयोगधर्मिता


समूह चित्र प्रदर्शनियों की बड़ी सीमा यह होती है कि उनसे किसी चित्रकार के कलाकर्म की संपूर्णता की दीठ नहीं मिलती। कुछेक श्रेष्ठ से तमाम कला का मूल्यांकन हो भी कैसे सकता है! पर देख रहा हूँ कोई दो दशक पहले अजमेर के पांच चित्रकारों की पहल से स्थापित ‘आकार’ समूह की सामुहिक चित्र प्रदर्शनी इस सीमा को लांघती है। कलाओं के गहन सरोकार लिए। बरस दर बरस समुह प्रदर्शनी में जिन चित्रकारों की कला से निरंतर साक्षात् होता रहा हूं, उनकी कलाकृतियां में आ रही परिपक्वता और समय के जुड़ते संदर्भ संभावनाओ के  नए द्वार खोलते हैं। 
बहरहाल, इस बार प्रदर्शनी में बहुत कुछ नया था। रंगों की ओप दीठ से, रेखाओं की लय से और समय से जुड़े संदर्भों की ओट से भी। मसलन कृष्ण की छवियों को नील रंग की सघनता में कैनवस पर उकेरते डा. अनुपम भटनागर ने कृष्णमय भावों को गहरे से अंवेरा है। भटनागर के चित्रों की बड़ी विशेषता  रंग और रेखाओं का माधुर्य है। ऐसा जिसमें परिवेश कथा, प्रसंग को उद्घाटित करता हममें बसता है। ‘आकार’ ग्रुप  के संस्थापकों में से एक लक्ष्यपालसिंह राठौड़ की कलाकृतियां भीड़ में भी अलग से दिखाई देती है। वजह है, उनमें बसा लोक का आलोक। धुंध से उभरती आकृतियों में राजस्थान का सुरम्य परिवेश  उनके चित्रों में ठौड़-ठौड़ है। मुझे लगता है, वह रेत के  हेत की संस्कृति के चितेरे हैं। प्रहलाद शर्मा की चित्र श्रृंखला की परियां रंगों की दीप्ती लिए जीवंतता की संवाहक बन पड़ी है तो अमित राजवंशी  घोड़ों की ऊर्जा कैनवस पर संजोते प्राचीन गुफा चित्रों की याद दिलाते हैं। धूसरित होते रंगों में उन्होंने महीन रेखाओं में विषय को सांगोपांग जिया है। अशोक  दीक्षित और अनिल मोहनपुरिया के चित्रों का सघन टैक्सचर और रेखाओं में रंगों का बहाव ध्यान खींचता है तो जलरंगों में देवेन्द्र खारोल ने पुष्कर की धरा में प्रकृति के अपनापे और पहाडि़यों के सौन्दर्य को जीवन्तता प्रदान की है। विनय त्रिवेदी परम्पराओं को सहेजते प्रयोगधर्मी कलाकार हैं। उनके चित्रों के केन्द्र में प्रतीक रूप में उभरती मानवीय आकृतियां संवेदनाओं को गढ़ती है। सरल रेखाओं में वह जीवन से जुड़े द्वन्द और स्मृतियों को परम्पराओं में सहेजते हैं-मिनिएचर की दीठ लिए।
"डेली न्यूज़", सम्पादकीय पेज
(साप्ताहिक स्तम्भ "कला तट") 3 जनवरी, 2013 
राजाराम व्यास चित्र फलक में दृष्टि संपन्नता लिए हमसे जैसे बतियाते हैं। नीता कुमार लोक चित्रो की हमारी समृद्ध परम्पराओं से साक्षात् कराती कैनवस कोलाज हमारे समक्ष रखती है तो उमा शर्मा के पेपर कोलाज अमृत लाल वेगड़ की अनायास ही याद दिलाते  हैं। शैला शर्मा की मोर पंख पार्श्व  लिए आकृतियां एक तरह से रंग कहन ही है। सुरेश  प्रजापति ने ब्रह्मा के जरिए सृष्टि को अंवेरा है तो हितेन्द्र सिंह भाटी के लोक चित्र सरीखे आख्यानों में बढ़त है। अर्चना की सहज सरल आकृतियां और रमेश शर्मा के चित्र कैनवस कथा सुनाते रेखाओं की लय से हममें बसते हैं। दिनेश  मेघवाल और पुष्पकांत मिश्र के चित्रों में उभरते संभावना आकाश  को पढ़ा जा सकता है। कीर्ति चटर्जी के कृष्ण और एम.कुमार का साधू, चित्र साधना के संवाहक है। हां, शिवराज  सिंह कर्दम के स्कल्पचर में टैक्सचर और गढ़न के साथ संवेदनाओं का उद्घाटित होता अर्थ भी मन को स्पन्दित करता है।
बहरहाल, यह महत्वपूर्ण है कि अजमेर का ‘आकार’ समूह निरंतरता के साथ अपनी कला प्रदर्शनियो में परम्परा, आधुनिकता और प्रयोगधर्मिता के ताने-बाने में कलाओं के हमारे समय से साक्षात् करा रहा है। 


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