Friday, January 10, 2014

सौन्दर्य की सांकेतिक भाषा


लयबद्ध थिरकती क्रिया है नृत्य। नाट्य और नृत्त का संयोग।... और इधर जब टीवी चैनलों पर नृत्य के जो प्रतिस्पद्र्धी कार्यक्रम देखता हूं, लगता है जैसे शरीर को हिलाने, गिराने, उठाने, पटकने को ही नृत्य मान लिया गया है। शारीरिक अंगो का दृष्यमय यह प्रदर्षन व्यायाम हो सकता है, मनोरंजन का अनर्गल हो सकता है पर नृत्य कैसे हो सकता है! नृत्य सौन्दर्य की सांकेतिक भाषा है। ऐसी जिसमें चित्रकला है, षिल्प है और अनुभूति से जुड़ी संवेदनाओं का संवेग संयोग भी। 
बहरहाल, नृत्य की बात करें तो अकेले कथक को ही लें। तकनीक के हिसाब से समय, काल, परिस्थितियों के अनुसार इसमें बहुत से परिवर्तन भी हुए पर संरचना में शारीरिक अंगो का प्रदर्शनभर यह कभी नहीं रहा। इसीलिए इसका सौन्दर्य कभी तिरोहित नहीं हुआ। मंदिरों में यह जन्मा। दरबारों में विकसित हुआ। दरबारी शैलियां ही बाद में घराने बने। जयपुर और लखनऊ घराने से कथक की पहचान विश्वस्तर पर पहुंची। कुछ बनारस घराने की भी बात करते हैं परन्तु लखनऊ और जयपुर घराने का मिश्रण सरीखा ही है यह। हां, कथक से राजा चक्रधर सिंह और रायगढ़ का नाम भी जुड़ा है। राजा चक्रधरसिंह ने अपने तई कथक में बंदिषों, तोडो, परन आदि को शास्त्रबद्ध करते संस्कृत शब्दावली में जो कुछ नया जोड़ा वह कथक के रायगढ़ घराने से जाना जाता है।
जो हो, मंदिरों, दरबारों और फिर घरानों से जुड़ा कथक सौन्दर्य की सर्जना के अपने मूल में आज भी लुभाता है। समय परिवर्तन के अनुसार इसमें बढ़त भी हुई। विषय-वस्तु, वेषभूषा और प्रस्तुति के लिहाज से पर इसकी शास्त्रीयता में कहां कमी आई! मुझे लगता है, वर्षों से जुड़ी आ रही परम्परा सहेजना जरूरी है पर परम्परा रूढ़ नहीं हो, जड़ नहीं हो, इसके प्रयास भी जरूरी है। नृत्य में गुरू क्या करता है? परम्परा से ही तो अवगत कराता है। नर्तक के लिए नृत्य से जुड़ी संभावनाओं को समझने मंे गुरू ही सबसे अधिक मदद भी करता है परन्तु स्वयं कलाकार जब नृत्य करता है तो उसे उसमें अपने आप की भी तलाष करनी होती है। जो हो चुका है, हो रहा है-उसमें नर्तक स्वयं कहां है, इसका अन्वेषण यदि वह करता है तभी परम्परा के जड़त्व को तोड़ वह आगे बढ़ सकता है। प्रेरणा श्रीमाली ने, शोवना नारायण ने, कुमुदिनी लाखिया आदि कलाकारों ने यही तो कथक में किया है। 
"डेली न्यूज़", 10 जनवरी, 2014 
बांग्ला-अंग्रेजी संवादों के साथ हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के मेल की शोवना नारायण की ‘कादंबरी’ इसी का उदाहरण है। प्रेरणा श्रीमाली ने कबीर को जीवंत करते उनके जुलाहे स्वरूप को भावाभिनय से अमूर्त में भी मूर्त किया है। पद संचालन में हाथकरघे की ध्वनि बुनते वह जैसे कथक के जयपुर घराने की पद भाषा से उसे गहरे से व्यंजित करती है। कुमुदिनी लाखिया ने कथक को पौराणिक कथाओं, आख्यानों, राधा-कृष्ण की परिधि से बाहर निकाल सामयिक परिवेष दिया। आधुनिक परिवेश में नृत्य के यह प्रयोग इसलिए अखरते नहीं है कि इनमें कथक की शास्त्रीयता, उसके सौन्दर्य से किसी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं की गई है। प्रेरणाजी के शब्द उधार लूं तो कहूं, कथक में सूफियाना कुछ हो सकता है पर ‘सूफी कथक’ उसे नहीं कहा जा सकता। कथक कथक है। इधर हो उलट रहा है। अंगों के चाहे जैसे प्रदर्शन के अनर्गल को शास्त्रीय से जोड़ उसे परिभाषित किया जा रहा है। शरीर के अंगो की गति के दुरूह प्रदर्षन को ही नृत्य मान लिया जा रहा है। यह कार्य तो मशीन अधिक बेहतर कर सकती है। इसके लिए देह को क्यों कष्ट दें! कलाएं संवेदनाओं का आकाष है, चमत्कार नहीं। चमत्कारिक ही कुछ करना है तो फिर उसे नृत्य नाम न दिया जाए!

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