Friday, January 17, 2014

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल

उपभोक्तावादी संस्कृति का साहित्यिक सच 

जयपुर में एशिया का सबसे बड़ा कहा जाने वाला लिटरेचर फेस्टिवल प्रारंभ हुआ है। कुछ दिनों के लिए अब डिग्गी पैलेस देश-विदेश के साहित्य सर्जकों, कला मर्मज्ञों की उपस्थिति से भरा-भरा रहेगा। देखता आ रहा हूं, वर्ष 2006 से ही यह आयोजन हो रहा है। यह सही है, कला, संस्कृति और साहित्य जीवन मूल्यों का पोषण करते हैं। मनुष्य में संवेदनाआंे का वास, जीवन के प्रति उत्साह और उमंग के भाव इनसे ही जगते हैं। स्वाभाविक ही है कि साहित्य उत्सव जैसे आयोजन इसमें महत्ती भूमिका निभा सकते हैं परन्तु यह भी देखे जाने की जरूरत है कि इस तरह के आयोजनों में कौनसे संस्कार समाज को संप्रेषित किए जा रहे हैं? 
डेली न्यूज़, 17 जनवरी, 2014 
यह सच है, भारतीय भाषाओं और विदेशी लेखकों से संवाद का यह तब बेहतरीन मंच रहा परन्तु शनैः शनैः बहुतेरी स्तर पर यह उपभोक्तावाद की पाश्चात्य संस्कृति के प्रसार का संवाहक भी बनता चला गया। गत वर्ष हुए आयोजन को ही लें। साहित्य उत्सव में सम्मिलित होने आए लोगों को ‘ग्रेप फाॅर वेन’ के अंतर्गत शराब कैसे बनती है, इसके बारे में बताया गया। एक दिन आयोजन स्थल के अंदर लगे मूगल टैन्ट में ‘द ओरिजन आॅफ सेक्स’ माने काम क्रिया की उत्पति पर फारामेर्ज दाभोईवाला और विलियम डेलरिम्पेल का तथा टाटा स्टिल फ्रंट लाॅन में ‘सेक्स एंड सेंसिबलिटी: वूमिन इन सिनेमा’ विषय पर शबाना आजमी और प्रसून जोशी का संजोय राॅय से संवाद होते दिखा। और यही क्यों दूसरे विभिन्न सत्रों में लेखक जैसे पहले कभी नहीं कहा गया, वह कहने की होड़ कर रहे थे। केरल के लेखक जीत थाईल ने अपने उपन्यास ‘नारकोपोलिस’ के बतौर अंश गालियों का वाचन किया। स्कूल-काॅलेज विद्यार्थियों को कांचा इलैया ने बलात्कार की जड़ों को वैदिक संस्कृति से जुड़ा बताया और भी ऐसा बहुत कुछ पिछले साहित्य उत्सव में हुआ था।
बहरहाल, मुझे लगता है, कहने को साहित्य उत्सव के अंतर्गत नई पीढ़ी को साहित्य से जोड़ने की कवायद के रूप में प्रचारित किया जाता है परन्तु सोचने की बात यह है कि नई पीढ़ी इस तरह के आयोजनों से क्या सीख लेगी? उन्हें पांच दिनी आयोजन में सपनो ंका इन्द्रधनुष दिखाई देता है। यह ऐसा है जिसमें लेखक बन तमाम तरह के ऐशो आराम की जिन्दगी को जिया जा सकता है। नई पीढ़ी सोचती है, उन्हें भी साहित्य की दुनिया में ही आना चाहिए। प्रेम करें और उसकी कहानी लिख दें। मन में जो आए, चाहे वह वर्जित ही हो-उसको अभिव्यक्त कर दें। यही तो लेखन है। अपरिपक्व युवा मन यही सब कुछ सोचता है और लेखन को ही आजीविका बनाने की भी सोच लेता है। पर सोचने की बात यह है कि भारत में कितने आज भी ऐसे लेखक हैं जो अकेले लेखन के बल पर जी रहे हैं? 
बहरहाल, साहित्य उत्सव वह पहल है जिसके अंतर्गत अभिजात्य, मध्यमवर्ग से लेकर आम जन को भोगवादी चकाचैंध अनुभूत करायी जाती है।  साहित्य शायद इसका माध्यम इसलिए बना है कि उस तक हर कोई बगैर किसी झिझक, संकोच के पहुंच जाए। जो छवि साहित्य उत्सव के जरिए साहित्य की बनती है, वह छवि नहीं है। वह गढ़ी गयी छवि है। दिखाई जाने के लिए कुछ समय के लिए गढ़ी गई। आम आदमी उस छवि में ही उलझ जाता है। वैसा ही अपने आपको समझने लगता है। ऐसे में हिन्दी और दूसरी भाषा के साहित्यकार जिन्हें स्थानीय आयोजक अपनी बुद्धि चातुर्य से बुलाते हैं, उनके समक्ष समस्या यह भी हो जाती है कि औचक ही वह अपने को उन व्यावसायिक लेखको के समक्ष समझने लगते हैं जो दरअसल इस छवि को गढ़ने वालों की भूमिका में वहां होते हैं। 

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